Sunday, May 19, 2024

 भाव भरे मेरे आंसू 

नमकीन पानी की कुछ बूंदे ज्ब आंखों की कोरों पर आ ठहरीं तो कहलाईं आंसू 

नारी शक्ति का स्वरूप है फिर आंसू उसकी कमजोरी क्यों कहलातेँ हैं 

कही कमजोरी ही हथिआर बनकर वार करती है जब पृकृति का सहयोग होता है 

दुखी माता के दिल की हाहाकार तो इंद्र का भी आसन हिला देती है 

भरे बदल भी बरखा बनकर आंसू बरसाते है 

पत्ते पर ठहरी ओस की बूंदे भी प्रकृति के आंसू हैं 

जहाँ दुख के आँसू अति पीड़ित असहनीय हृदय की व्यथा दर्शाता है 

वहीं ह्रदय जब ख़ुशी आह्लादित होता है तो ख़ुशी के अश्रू आँखों से बह निकलते हैं 

अश्रू हमारी भावनाओं का सच्चा आईना है 

 तभी तो हम हँसते हँसते रो पडते हैं 

और रोते रोते हँस देते हैं 

जहाँ शब्द गहरे शस्त्र है वहां आंसू पैनी धार से सीधे ह्रदय पर घाव करते हैं 

 आंसू तो आँसू ही हैं पर व्यथा से भरे और ख़ुशी से आह्लादित ह्रदय का सुकून भी आँसू ही हैं 

ऑंसू वहाँ विजयी हैं जहां शब्द फीके और अर्थहीन हो जाते हैं 

तो इसलिए रोईए जी भर रोईए मन के भावों का इज़हार कीजिए 

मत सोचिए पुरूष होकर आप कमज़ोर कहलायेंगे या नारी होकर असहाय 

ये तो राहत है अभिव्यक्ति है हमारे भावों की 

ये ही तो मेरे भाव भरे आँसू जो आप सबकी आँखों में आ ठहरे हैं 









Friday, November 3, 2023

अधिकारों की मांग 


लोगों  की बातें बातों में चर्चा अधिकारों की 

कोई मांगे अपने अधिकारों को 

कोई छीने सबके अधिकारों को 

संविधान  में  मानव अधिकारों का गठन हुआ । 

लोकतंत्र की   ढाल पर 

मानव अधिकारों का संगठन  हुआ ।

संविधान ने जब, मानव अधिकारों का गठन किया।

आजादी थी.तब .अभिव्यक्ति की, 

लोकतंत्र की.. यह ऐसी शक्ति थी।

 शक्ति का.फिर .वह दुरुपयोग हुआ।

हर नीति का बस केवल . विरोध-दर - विरोध हुआ

धर्मों की आजादी क्या.मिली । 

हर धर्म, दूसरे धर्म का कातिल हुआ। 

मानव अधिकारों के तराजू में,

हर शक्तिशाली का तोल हुआ।

अधिकारों के लिए लड़ा रहा है  समाज।

अनशन -आंदोलन पर अड़ा है समाज।

हर मुद्दे पर पार्टी बाजी हो रही है । 

घटिया राजनीति में भ्र्ष्ट नेताओं की कामयाबी हो रही है

भूखी जनता रोटी कपड़े को तरस रही है 

जनता के पैसों से नेताजी सड़के, पुल , और फ़ैक्टरिओं को बनाने की आड़ में डकार ले रहें हैं 

अंधी भेड़ों यानी भ्र्ष्ट नेताओं की अगवानी में, 

अधिकारों के लिए बस लड़ाई ही हो रही है ।

संविधान की धाराओं को नेता अपने स्वार्थ की गटर में बहा रहे हैं  और जनता अधिकारों पर अपनी लड़ाई लड़ रही है । 

हमारा अन्नदाता किसान अधिकारों की लड़ाई में पिस रहा है। 

रोज़ नये आंदोलन होते हैं पर नेताजी भी चिकना घड़ा बन बैठे हैं क्योंकि हर कानून की  तोड़ मतोड़ वो जान गये हैं 

महिला अपने अधिकारों की बात किससे कहे। 

जो उसे जन्मने से पहले ही कोख़ में मार देता है 

या जो पिता होकर उसके सपनों पर संस्कारों का अंकुश लगा देता है 

उसको भी पंख लगा कर अपनी कामयाबी का आसमान छूने का अधिकार पाना है 

बहुत बन चुकी वो भोली बेचारी अबला नारी 

बनना है उसको अब दुर्गा चंडी और महाकाली 

जो बनके शक्ति नवीन समाज का नव निर्माण करे 

जहां मिले सबको सम्मान और मिले समान अधिकार 

 

 

Friday, May 13, 2022

रिश्तों में आज़ादी 

रिश्तों में आज़ादी 

रिश्ते गहरे खून के रिश्ते 

कितने मधुर कितने न्यारे 

माँ बच्चे का मुख देख बलाए लेती  

उसके  हर कष्ट हर पीड़ा को हर लेती 

उसकी किलकारिओं संग हंस लेती 

बच्चों को फलने फूलने की पूरी आज़ादी देती 

लेकिन उस माँ को बच्चों ने कितनी आज़ादी दी

परदेस जा रहे बेटे को रोकने की आज़ादी 

दुःख और लाचारी में बेटे का हाथ थामने की आज़ादी 

भरपेट भोजन करने की आज़ादी 

अपने लिये सपने देखने और पूरे करने की आज़ादी 

भाई बहन के मान मनुहार का रिश्ता 

राखी के कच्चे धागों में बंधी मजबूत गांठों का रिश्ता 

बहन की गरीबी भाई के घर की शान और शौकत में फंस 

कर मिलने की आज़ादी खो देती है 

चाचा, भतीजा , मामा भांजा में सम्मान और आज़ादी होती तो घर घर में कलह करने वाले शकुनि या कंस ना बैठे होते। 

भतीजी या भांजी अपनी इज़्ज़त को आंचल में छुपा ना रखती 

रिश्तों में सम्मान और आज़ादी ही जरूरी है 

पति पत्नी का रिश्ता 

प्रेम , अभिसार , पूर्ण समर्पण का रिश्ता 

भावी पीढ़ी  के सृजनकर्ता 

जनक जननी जिनके 

संस्कारों से फलती फूलती भावी पीढ़ी 

ऐसे रिश्तों में आज़ादी और परस्पर सम्मान ना हो तो 

ले लो या दे दो तलाक़ 

मासूम भोले बच्चे किसी डेकर या 

फिर किसी अनजान आया के आंचल में आंसू पोंछ लेते हैं 

नानी नाना दादी दादा परदेस में आस लगाए बैठे रहते हैं 

सूनी आँखों से  बाल गोपाल की राह तकते थक जाते पर वो नहीं आते ना उन्हें जाने की आज़ादी मिलती है 

रिश्तों की डोर कंही गहरी उलझी पड़ी है आज़ादी की आस में कंही जंग खा कर पड़ी है 

आज़ादी ही आज़ादी की गुहार लगा रही 

सुन लो अब कही देर ना हो जाये 

सुन लो अब कही देर ना हो जाये 




Friday, April 15, 2022


Rain Rain Come Again
Long Winter is gone.
Snow  clad trees are not snowy.
Naked trees are bearing lovely pink flowers outside my window.
April is here with rains and rains.

 Walking in the rain
Rain Drops Entangling My hair
Rain Drops kissing my cheeks
Rain Drops Dropping down my shoulders   

Rain Rain Every Where Rain
Making a still pool on the sidewalk
Where children are jumping with joy
Splashing water all over their clothes and shoes

Their clothes drenched in rain
Mothers screaming behind
Noise of screaming, Noise of Joy
Rain Rain Everywhere Rain

Noise of rain drops falling on the tin roofs
Noise of children screaming in joy
Birds Chirping with Joy
Peacocks Opening Their feathers and Dancing with Joy
Rain Rain Every Where Rain
Ten thousand flowers blooming in The Rain
Dancing Daffodils, smiling Magnolia
Blooming Cherry Blossom Rejuvenating tulips

Fresh Mulch air in the green meadows
Under the warmth of the Sun
Earthworms Crawling Around the pool of water
Rain Rain Every where Rain

Tiny Shoots springing out of the seedlings
The Tree Leaps up Alive Into the Air
Fresh buds relax and spread greenness
Rain Rain Come Again

Saturday, November 27, 2021

मेरी घायल उंगलियां और दुखी मन 

मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में बीता। कानपुर शहर भारत की राजधानी दिल्ली के पास गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है कानपुर में मई , जून ,जुलाई ,के महीनों में भीषण गर्मीं पड़ती है। गर्मी में दोपहर को लू चलने से गर्मी असहनीय हो जाती है इस कारण इन दिनों स्कूल कॉलेज ग्रीष्म अवकाश  के लिए बंद हो जाते हैं। घर में संयुक्त  परिवार होने के कारण हम बच्चों का समय खेल कूद और मौज मस्ती में बीत जाता था। ऐसे ही कुछ दिनों की यादें मन को सहरा जाती हैं। उन दिनों ना एयर कंडीशनर थे ना कूलर और ना ही टीवी। घर को ठंडा करने के लिए खिडकियों पर खस खस की चिके लगा कर उनपर पानी का छिड़काव किया जाता था। मनोरंजन के लिए लूडो , ताश , कैरम बोर्ड आदि खेल उपलब्ध थे। कभी कभी अन्ताक्षरी भी खेल लेते थे। पिताजी और चाचाजी सुबह काम पर जाकर शाम को लौटते थे। दोपहर में गर्मी बहुत बढ़ जाती है तब घर के बड़े कमरे में मम्मी और 

चाचियाँ  सब बच्चों के  सोने का प्रबंध कर देती थीं। कमरे की खिड़किओं पर खस खस की चिकों पर पानी का छिड़काव करके कमरा खूब ठंडा हो जाता था कमरे के बीचोंबीच एक बड़ा घड़ा पानी से भर कर रख दिया जाता था ताकि बच्चों को दोपहर को कमरे से बाहर ना जाना पड़े। एक बार मटके से पानी निकालते समय मेरे हाथ से  गिलास फिसल गया और मटका फूटते ही पूरा कमरा पानी से भर गया तब बुआ( पिताजी की बहन ) ने जो डांट फटकार लगाई  वो आज तक नहीं भूली। 

उन दिनों मटका और सुराही फूटना और डांट फटकार का पड़ना रोज का काम था लेकिन कब किसकी बारी आती है यह कहना मुश्किल था। शाम को छत के फर्श और दीवारों पर पानी डाल कर उसे ठंडा  कर देते थे फिर सब लोग छत पर आ कर बैठ जाते थे। ऐसे ही एक दिन शाम को सब लोग छत पर बैठे थे। सबके बार बार पानी मागने पर मैंने आगे बढ कर कहा की मैं सबके लिए पानी ले आती हूँ क्योंकि हम सब मिलकर अन्ताक्षरी खेलने वाले थे और मैं उसमे पूरी तरह भाग लेना चाहती थी। अब मैने कह तो दिया की मै सबके लिए पानी लेकर आती हूँ लेकिन कैसे ? क्यों ना पूरी भरी हुई सुराही ले जाऊँ , लेकिन अभी अभी मैंने नहा कर सूंदर सी फ्रॉक पहनी है जो सुराही उठाने से मिट्टी से सन जाएगी। फिर दिमाग ने सुझाया एक उपाय। मैंने पानी से भरी सुराही  को अख़बार में लपेटा और छत पर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ना शुरू किया। चढ़ते चढते कुछ शोर सुनाई दिया शायद सामने मस्जिद से अज़ान की आवाज़ गूंजी होगी। जो भी हो मेरा ध्यान कुछ पल के भटका और मेरा संतुलन बिगड़ा और ज़ोर का धमाका हुआ इससे पहले की मैं समझूँ की क्या हुआ है मेरी बड़ी बहन शारदा मेरी ओर  आई और जोर जोर से ताली बजा बजा कर चिल्लाने लगी , '' अरे!!!अरे !!! सब लोग आकर देखो नीना ने फिर से आज सुराही फोड़ दी।" उसके चिल्लाने पर मुझे समझ में आया की क्या क्या हो गया है। अख़बार से सुराही फिसल कर सीढ़िओं पर गिर कर टुकडे टुकड़े हो गई। सुराही का पानी पूरी सीढ़िओं पर फैल गया। मैं सुराही को फिसलने से रोकने के लिये आगे की ओर झूकी तो मेरी उँगलियाँ नीचे , टूटी हुई सुराही मेरी उंगलिओं के ऊपर और उसके ऊपर मेरा झुका हुआ दस साल का शरीर।  शरीर का और सुराही का भार मेरी कोमल ऊंगलिओं के लिये असहनीय हो गया और मैं दर्द से तड़प कर रोने लगी। शारदा हमेशा ऐसे ही ताली बजा बजा कर हँसती है इस लिये कोई उसके हँसने पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। पर मेरा रोना हैरानी की बात था। मैं बहुत सहनशील हूँ और आसानी से रोना या हार मानना मैंने नहीं सीखा। सो मेरा रोना सुन कर बुआ  दौड़ते हुए मेरे पास आयीं और मेरी जख्मी उंगलिओं को सहलाने लगी धीरे धीरे पानी की प्यास भूल कर सब लोग मेरे  पास आये । कोई गिरा हुआ पानी पोछे से सूखा रहा है कोई टूटी हुई सुराही का अस्थि पिंजर उठा रहा। चाची कह रहीं हैं , "इतनी बड़ी सुराही ,वो भी पानी से भरी हुई , किसने उठाने को कहा और उठाई तो उठाई अख़बार में लपटने की बेवकूफी करने को किसने कहा था ?"मैं अपनी घायल उंगलिओं के दर्द से तड़प रहीं हूँ और यह सब लोग अपनी पंचायत में लग कर मुझे ही दोष लगाने पर तुले हैं। यह सब सुनकर मैंने और जोर जोर से रोना शुरू कर दिया। इस पर मम्मी ने मुझे गोद में उठाने की कोशिश की तो पता चला की मेरी सुन्दर सी फ्रॉक जिसको बचाने की कोशिश में इतना बड़ा हादसा हो गया है वोह तो पूरी तरह से गीली तो गीली मिट्टी से भी  पूरी तरह सन गई है।  मुझे लगा अब तो मम्मी फ्रॉक गंदी करने की कुछ तो सजा देंगी कम से कम डांट तो जरूर पड़ेगी। मम्मी कुछ कहे इससे पहले पिताजी मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घर के पास वाले दवाखाने में ले गए।  डॉक्टर ने मेरे हाथ की मलहम पट्टी की और मुझे खाने के लिये कुछ मीठी गोलिआं भी दी।  घर आने तक सब लोग अन्ताक्षरी में मग्न हो गए थे और बाकि की डांट फटकार का किस्सा  वहीं खत्म हो गया ऐसा मैंने सोचा क्योंकि रात के खाने के बाद मैं आराम से सो गई। अगले दिन जब मम्मी ने मेरी फ्रॉक धोने के लिए उठाई तो पता चला की फ्रॉक गंदी होने के साथ साथ थोड़ी फट भी गई थी। शायद सुराही के टुकडे से रगड़ लग गई होगी।  मम्मी फ्रॉक को धोबी  से धुलवा लेती लेकिन फटी फ्रॉक को सिलेगा कौन ? इस पर तो सज़ा निश्चित ही मिलेगी। सो मम्मी ने मुझे पास बुलाया और फ्रॉक की पूरी पुराण कथा सुनाना शुरू कर दिया किसने कपड़ा चुना कहाँ से सिलवाई किसने तोहफ़े के रूप में मुझे दी। एक मामूली सी फ्रॉक आज इतनी महत्वपूर्ण और नायाब कैसे हो गई यह जान कर मुझे अपनी घायल उंगलिओं की बजाए अपनी फटी हुई फ्रॉक ज़्यादा घायल लगने लगी। पर मैं भी हार कहाँ मानने वाली थी मैंने मम्मी से कहा की इस परेशानी का हल मैं खुद ही निकालूंगी। अगले दिन मैंने चाची से सुई धागा माँगा तो उन्होंने कहा , " क्यों भाई अब क्या करने का इरादा है "

मरता क्या ना करता मुझे चाची को फटी हुई फ्रॉक और उसके नायाब होने का इतिहास जो मैंने अपनी मम्मी से सुना था पूरा बताना पड़ा। सुई मिली धागा मिला चाची ने सिलाई करने में पूरी मदद भी कर दी पर अनजाने में ही सही जो मुझे नहीं करना चाहिए था वो मैंने कर दिया। फ्रॉक के इतिहास को बताते बताते मैंने मम्मी के कई छुपे हुए राज चाची तक पहुंचा दिए। मम्मी अपने बच्चों के लिये तो यह करती वोह करती हैं और हमारे बच्चों के लिया क्यों नहीं करती  संयुक्त परिवार में भेदभाव होना घर की सुख शांति के लिए अच्छा नहीं होता। सो पहले तो चाची और मम्मी का कई दिन तक मनमुटाव चलता रहा जिसकी भरपाई करना मम्मी को काफी कष्टदायक और  महंगा लगा।  मुझे भी थोड़ा डांट और थोड़ा प्यार से मम्मी ने समझाया की मैंने चाची को वोह बातें क्यों बताईं जो सिर्फ मेरे लिये कही गयी थीं। मुझे कुछ समझ में आया कुछ नहीं लेकिन फ्रॉक के इतिहास ने जो पूरे घर को हिला डाला ख़ास कर मम्मी को जो कष्ट हुआ उसका मुझे अपनी फ्रॉक और उंगलिओं के घायल होने से भी बड़ा लगा।