Sunday, September 5, 2010

चतुर खरगोश
पात्र :

एक पंडितजी, एक शेर ,एक लोमड़ी, एक चालाक चतुर खरगोश

सामान; एक पिंजरा (एक पुराना कार्टन जिसमे दरवाजा बना हो )
जानवरों के मुखौटे ,एक चार्ट पर या कपडे पर जंगल का दृशय

शेर पिंजरे में बंद है और पंडितजी को उधर से जाते हुए देख कर मदद के लिए पुकारता है.

शेर; ( मरियल आवाज में); हाय हाय मैं पिंजरे में फंसा हूँ मुझे बचाइये

पंडितजी इधर उधर देख रहें हैं.

शेर; मुझे बचाइये पंडितजी मुझे बचाइये पंडितजी

पंडीजी ; अरे ! कौन मुझे पुकार रहा है ?

शेर; पंडितजी पीछे देखिए इधर मैं हूँ शेर

पंडितजी; ओहो ! तो तुम इधर हो! मैं भी सोच रहा था कि यह आवाज़ कहाँ से आ रही है?

शेर; जी हाँ मैं आपको मदद के लिए पुकार रहा हूँ

पंडितजीः क्या बात है ?

शेरः पंडितजी मैं पिंजरे में फँस गया हूँ आप मुझे बाहर निकाल दीजिये

पंडितजी सोचने लगते हैं कि क्या शेर को बचाना ठीक होगा बाहर आते ही कहीं शेर मुझे ही ना खा जाये कुछ सोचकर पंडितजी बोलते हैं

पंडितजी अरे भई शेर मैं तुम्हे नहीं बचा सकता. तुम तो मुझे माफ ही करो मैं चलता हूँ मुझे यजमान के घर कथा बाँचने जाना है

शेरः अरे पंडितजी मुझे छोड कर मत जाइये

पंडितजीः भई देखो शेर, अगर मैंने तुम्हे बचा लिया तो मुझे डर है कि तुम मुझे ही खा जाओगे

शेरः पंडित मैं तो पिंजरे में बंद हूँ मैं आपको तो क्या किसी को भी खाने की बात नहीं सोच
सकता प्लीज मुझे छुडा दीजिये

पंडितजीः अरे प्लीज़ कह रहे हो तो कुछ सोचने पडेगा

पंडितजी सिर खुजलाते हैं और थोडा सोचने का अभिनय करते हैं उनको दया आ जाती है

पंडितजी- अच्छा चलो मैं तुम्हे बाहर निकाल देता हूँ

इतना कह कर पंडितजी शेर को पिंजरे से आज़ाद कर देते हैं

शेर बाहर आते ही पंडित जी का कंधा पकड़ लेता है

पंडितजी चिल्लाते हैं अरे अरे यह क्या कर रहे हो मैंने तुम्हे बचाया और तुम मुझे ही खाना चाहते हो यह तो
अधर्म है

शेरः (पेट पर हाथ फेरते हुये) कैसा अधर्म मैं तीन दिन से भूखा हूँ भूख से मेरे प्राण जा रहे हैं इस समय मेरे लिये
अपने प्राण बचाना ही सबसे बड़ा धर्म है

पंडितजीः देखो शेर भाई मैंने तुम्हारी जान बचाई है तुम मुझे मत खाओ मुझे छोड दो प्लीज.

शेर-
पंडितजी आप प्लीज कह रहे हैं तो मुझे कुछ सोचना पड़ेगा

पंडितजीः सोचो सोचो लेकिन मुझे छोड़ दो

शेर
(कुछ सोचने के बाद ) अच्छा तो पंडितजी चलिये हम तीन लोगों के पास जायेंगे औरपूछेंगे कि क्या कोई अपने सामने आया हुआ भोजन छोड़ता है अगर एक ने भी हाँ कह दिया कि वो अपने सामने आया हुआ
भोजन छोड़ देता है तो मैं भी आपको छोड़ दूँगा

पंडितजीः अच्छा चलो जैसा तुम्हे ठीक लगे करो

पंडितजी और शेर दोनों जंगल में जाते हैं कुछ दूर जाने पर उन्हें एक लोमड़ी दिखाई देती है

शेर- नमस्कार लोमड़ी बहन कैसी हो
?

लोमड़ीः नमस्ते राजाजी मैं तो ठीक हूँ पर आपका क्यों बजा है बाजा

शेरः अरे नहीं मैं तो ठीक हूँ लेकिन मुझे तुमसे एक प्रश्न का उत्तर चाहिये

लोमड़ीः जी कैसा प्रश्न ?

शेरः प्रश्न यह है कि क्या कोई अपने सामने आया हुआ भोजन छोड़ता है ?(नोमड़ी की तरफ देख
कर शेर आँख मारता है)

लोमड़ीः नहीं राजाजी कभी नहीं

शेरः घन्यवाद लोमड़ी बहन, चलिये पंडितजी

पंडितजी उदास हैं और शेर खुश दिखाई दे रहा है दोनों आगे जाते हैं सामने से एक बिल्ली आती हुई दिखाई देती है

शेरः नमस्कार बिल्ली बहन कैसी हो?

हिल्लीः नमस्ते राजाजी मैं ठीक हूँ आप लोग कैसे हैं?

शेरः हम लोग ठीक हैं मुझे तुमसे एक प्रश्न का उत्तर चाहिये

बिल्लीः हाँ हाँ बोलिये क्या प्रश्न पूछना चाहते हैं ?

शेर- ( शेर पंडितजी की ओर इशारा कर के कहता है) बताओ क्या कोई अपने सामने आया हुआ
भोजन छोड़ता है कभी ?

बिल्लीः अरे नहीं राजाजी कभी नहीं

शेर मुस्कराता है और पंडितजी बड़े दुखी हो जाते हैं इतने में सामने से एक खरगोश को आता देखकर पंडितजी जल्दी से उसके कान में कुछ कहते हैं इतने में शेर सामने आकर खरगोश से बात करता है

शेरः नमस्ते खरगोश भाई कैसे हो ?

खरगोशः नमस्ते राजाजी मैं तो अच्छा हूँ लेकिन लगता है कि आप किसी समस्या में फँसे हैँ

शेरः समस्या तो कोई नहीं है केवल एक प्रश्न का उत्तर चाहिये

खरगोशः देखिये राजाजी प्रश्न तो आप सौ पूछ लीजिये लेकिन पूरी बात जाने बिना मैं एक प्रश्न का
उत्तर भी नहीं दे सकता मुझे पूरी बात बताईये

शेरः अच्छा तो सुनो मैं पिंजरे में बँद था और पंडितजी ने मुझे बचाया अब मैं भूखा हूँ
पंडितजी मेरा भोजन हैं और मैं इन्हें खाना
चाहता हूँ

पंडितजीः ( रोनी आवाज़ में) देखो तो मैंने इसे बचाया और यह मुझे ही खाना चाहता है

खरगोशः पंडितजी आप जरा ठहरिये मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है राजाजी क्या
आप पूरी बात ठीक से समझायेंगे ?

शेरः (कुछ गुस्से से) अरे भई मैं पिंजरे में बँद हो गया था और

खरगोश- रूकिये रूकिये क्या कहा राजा जी आप और पिंजरे में ? बात कुछ समझ में नहीं आ रही
है
मुझे दिखाईये कहां पर आप बँद थे?

तीनों पिंजरे के पास जाते हैं और शेर कहता है

शेरः देखो यह पिंजरा है

खरगोशः हाँ है

शेरः मैं इस पिंजरे में बँद था और पंडितजी ने मुझे बाहर निकाला

खरगोशः अरे आप इतने बड़े राजा इस पिंजरे में कैसे बँद हो सकते हैं मैं नहीं मानता

शेरः (पिंजरे के अन्दर जाता है ) देखो

खरगोश शेर के पिंजरे के अन्दर घुसते ही पिजरा बँद कर देता है

खरगोशः अच्छा तो आप पिंजरे में बँद हो गये थे हाँ अब बात कुछ कुछ समझ में आ रही है

शेरः समझे तो मेरी पूरी बात सुनो

खरगोशः राजाजी आप पिंजरे में ही अच्छे लगते हैं पंडितजी चलिये शेर की यही जगह ठीक है

पंडितजी की जान में जान आती है और वो खुशी से खरगोश को गले लगा लेते हैं

पंडितजीः अरे भाई खरगोश आज तुमने अपनी चतुराई से मेरी जान बचाई है तुम्हे कभी मेरी
मदद की जरूरत पड़े तो बताना

खरगोशः अरे पंडितजी इंसान ही इंसान के काम आता है लेकिन कभी कभी जानवर भी इंसान
के काम आ जाता है अच्छा नमस्ते

पंडितजीः नमस्ते खरगोश भई

Tuesday, August 17, 2010

एक उदास शाम

फिर एक उदास शाम को
किसके कदमों की आहट
हौले से अरमानों की कश्ती में

तमन्नाओं को हिचकोले दे जाती है
नीशीको कोई आवाज़ दे कर कह दे
कि यह एक सपना नहीं हकीकत है

दर्द में हँसी

दर्द में हँसी

मेरी प्यारी सखी तुम्हारे इसरार पर

कौन सा गीत सुनाऊँ ?

ज़ख्मों से छलनी इस दिल से

आह नहीं निकलती

हैरान है नीशी कि

ये हँसी के झरने कैसे फूट रहे हैं ?

शायद ये दिल शिव का वरदान पा गया है

जो दर्द को ठहाकों में वदल गया है

Monday, March 15, 2010

तलाश गुमशुदा की
नीना वाही
मुझे अमेरिका में आये हुए लगभग दस साल हो गयें हैं। इस दौरान मैं डे केयर में काम कर रहीं हूँ। खाली समय में कविता कहानी लिखना पसंद करती हूँ और दोस्तों से मिलती जुलती रहती हूँ। एक दिन दोस्तों के साथ बैठे हुए इस बात पर चर्चा छिड़ गयी की अमेरिका में रहने वाले भारतीय बच्चों को कॉलेज स्तर पर हिंदी कैसे पढ़ाई जाये ।

भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। हम अमेरिका में आकर धर्म और भाषा को उसी दृष्टिकोण से देखतें हैं। हमारी भावी पीढ़ी को भी ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए कि वे धर्म निरपेक्ष रह कर अपने देश का इतिहास सही रूप से जान सके और भाषा को सम्पर्क का माध्यम समझे न की धर्म की लडाई।
इसी चर्चा के दौरान मुझे अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया। मेरा जन्म स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में हुआ था। कानपुर में माल रोड पर तार घर के पीछे नवाब साहिब के हाते में हमारा मकान था। तारघर के बांयी ओर रिज़र्व बैंक है जहाँ मेरे पिताजी और चाचाजी काम करते थे, और दाईं ओर द्वारिकाधीश का मन्दिर स्थित है। मकान में मेरे साथ मेरे भाई बहन और माता पिता के अलावा तीन चाचा-चाची सपरिवार रहते थे। मुझे मिलाकर उस घर में पूरे चौबीस बच्चे थे। बात उन दिनों की है जब मैं बहुत छोटी थी और अभी चल नहीं पाती थी हालाँकि मेरी हम उम्र के मेरे दो चचेरे भाइयों ने चलना शुरु कर दिया था। गर्मियों का मौसम था और दोपहर को खाने के बाद आम खाने का दौर चला तब मेरी चचेरी बहन सुरेखा ने सबको आम बाँटे और एक आम बच गया। बचे हुए आम से सबको मालूम हुआ कि घर में एक बच्चा ग़ायब है। सबको नाम लेकर पुकारा गया तब पता चला कि नीना नहीं है। सबने कहा, “अरे देखो, खिड़की पर बैठी होगी। “ घर के सारे सदस्य खोज बीन करने में जुट गए।

लेकिन मेरे पैरों में शायद उसी दिन पंख लग गए और मैं घर से निकल कर चलते चलते गली में आ पहुँची। अकेली बच्ची को गली में घूमते देख कर मोहल्ले के मौलवी साहब मुझे अपने घर ले गए। मुझे केवल इतना ही याद है कि एक प्यारी सी आँटी जिन्होनें हरी ओढ़नी पहनी थी, मुझे अपनी गोदी में ले लिया और चम्मच से सेवैयाँ खिलाईं। कुछ देर बाद मौलवी साहब वापस गली में आ गए। उनको समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस घर में रहती हूँ क्योकि मैंने चलना शुरू नहीं किया था और मोहल्ले में किसी ने मेरा चेहरा पहले नहीं देखा था। इतने में मेरे पिताजी घबराए हुए इधर उधर धूमते हुए दिखाई दिये तब मौलवी साहब ने मुझसे पूछा, “बेटी देखो तो, यह कौन हैं?“ मैं चिल्ला कर पिताजी की ओर भागी। मुझे चलकर अपने पास आता देख कर पिताजी को इस बात की खुशी हुई कि मैंने चलना शुरु कर दिया है। इस खुशी में वह यह भी भूल गए कि सारा घर मुझे ढूँढ- ढूँढकर परेशान हो गया है।

मुझे देख कर मेरी मम्मी बहुत खुश हुईं। वह मुसलमानों के मुहल्ले में रहने के बावजूद भी हमेशा उनसे दूर ही रहती थीं। बँटवारे के दौरान उन्होने अपनी आँखों से जो कत्ल-ए-आम देखा था उसकी दहशत अब तक उनके मन में थी। इसी कारण वह मुसलमानों के प्रति उदासीन-सी थीं। मेरे गुम हो जाने और मुसलमान के घर से बरामद होने के कारण उनका दृष्टिकोण मुसलमानों के प्रति हमेशा के लिए बदल गया। उस दिन के बाद से मौलवी साहब और उनके परिवार से उनका दोस्ती का सम्बन्ध बन गया।

आज मैं इस घटना के बारे में विचार करती हूँ तो लगता है कि अंग्रेज़ों ने कूटनीति से तो एक बार में एक पाकिस्तान बनाया था लेकिन हम लोग अपने संकुचित दृष्टिकोण और संकीर्ण व्यवहार से अपने चारों तरफ रोज ही और कितने पाकिस्तान बनाते रहते हैं।