वृन्दावन की कुंज गली थी
फागुन की एक अनमोल घड़ी थी
राधा की चोली हरी थी मन में आस भी बड़ी थी
कान्हा की पिचकारी भरी थी टेसूओं के रंग से सजी थी
न्यनों में चंचलता भरी थी
सखियाँ खड़ी थीं हँसी थी ठिठोली थी
अबीर गुलाल से थाली सजी थी
पवन की अठखेलियों से राधा का आंचल जो जरा ढलका,
कान्हा का हाथ भी तब फिसला
राधा की चोली कान्हा के रंग में रंगी थी
लाल गुलाल से मांग भरी थी।
लाज से पलकें भी झुकीं थी दोनों की आस फली थी
सखिओं की मण्डली जुड़ी थी।
हंसी और ठिठोली भी जमी थी।
मैने भी खेली ऐसी एक होली थी।
सपने में कान्हा से जब मैं मिली थी।
मैने भी ऐसी एक होली खेली थी जहाँ प्रेम की बौझार पड़ी थी
अनेक रंगों की टोली मिलाप बनी थी
नफरत नहीं थी दुश्मनों की टोली नहीं थी
प्रेम की बौझार पड़ी थी
नफरत नहीं थी दुश्मनों की टोली नहीं थी
होली वही थी होली वही है
वही होली है वही होली मुबारक हो सबको
1 comment:
मैंने यह कविता न्यूयॉर्क में होली के उपलक्ष्य में आयोजित कवि सम्मेलन में मार्च दस दो हज़ार बारह को पढ़ी थी
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