ख़ुशी की सीमा
सीमा के हाथ में तलाक के कागज़ थे , सोच में पड़ी है पिछले एक साल से दौड़
भाग और कचहरी की हाजरी भरने से छुट्टी मिली। रोज़ रोज का सुबह चार बजे से
कुकर का शोर बंद हो जायेगा। आधी-आधी रात को उठ कर पतिदेव को खाना पका
कर खिलाने से छुट्टी मिलेगी , ससुराल वालों के ताने शान्त हो जाएंगे ऐसी ही
अनगिनत जिम्मेदारियों से हमेशा के लिये छुटकारा मिल जायेगा।
वाह! फिर तो आजादी से जिंदगी जीने का अवसर सीमा पा जायेगी। इतना सुनहरा
भविष्य दिख रहा है फिर भी सीमा को ख़ुशी का अहसास क्यों नहीं हो रहा। आज तो
सीमा को ख़ुशी से झूमना चाहिये, लेकिन उसका मन दुःखी क्यों हो रहा है. क्या
उसकी आज़ादी अकेलेपन और अवसाद से घिरी हुई लग रही है ? क्या जीतने के
प्रयास में उसने हार ही हासिल की है ? ऐसे ही कितने विचारोँ में घिरी हुई अचानक
चौंकी किसी ने उसके आँचल के छोर को खींचा । सीमा ने घूमकर देखा उसकी नन्ही
बेटी सोना मुस्कराकर उसकी ओऱ देख रही है। सोना की मुस्कराती हुई आँखों में सीमा
को एक उजले भविष्य की झलक दिखलाई दी। आज सब कुछ खोने के बाद सोना के
जिंदगी में होने से जैसे सीमा की खुशियों की कोई सीमा ही नहीं रही है।
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