Monday, March 15, 2010

तलाश गुमशुदा की
नीना वाही
मुझे अमेरिका में आये हुए लगभग दस साल हो गयें हैं। इस दौरान मैं डे केयर में काम कर रहीं हूँ। खाली समय में कविता कहानी लिखना पसंद करती हूँ और दोस्तों से मिलती जुलती रहती हूँ। एक दिन दोस्तों के साथ बैठे हुए इस बात पर चर्चा छिड़ गयी की अमेरिका में रहने वाले भारतीय बच्चों को कॉलेज स्तर पर हिंदी कैसे पढ़ाई जाये ।

भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। हम अमेरिका में आकर धर्म और भाषा को उसी दृष्टिकोण से देखतें हैं। हमारी भावी पीढ़ी को भी ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए कि वे धर्म निरपेक्ष रह कर अपने देश का इतिहास सही रूप से जान सके और भाषा को सम्पर्क का माध्यम समझे न की धर्म की लडाई।
इसी चर्चा के दौरान मुझे अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया। मेरा जन्म स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में हुआ था। कानपुर में माल रोड पर तार घर के पीछे नवाब साहिब के हाते में हमारा मकान था। तारघर के बांयी ओर रिज़र्व बैंक है जहाँ मेरे पिताजी और चाचाजी काम करते थे, और दाईं ओर द्वारिकाधीश का मन्दिर स्थित है। मकान में मेरे साथ मेरे भाई बहन और माता पिता के अलावा तीन चाचा-चाची सपरिवार रहते थे। मुझे मिलाकर उस घर में पूरे चौबीस बच्चे थे। बात उन दिनों की है जब मैं बहुत छोटी थी और अभी चल नहीं पाती थी हालाँकि मेरी हम उम्र के मेरे दो चचेरे भाइयों ने चलना शुरु कर दिया था। गर्मियों का मौसम था और दोपहर को खाने के बाद आम खाने का दौर चला तब मेरी चचेरी बहन सुरेखा ने सबको आम बाँटे और एक आम बच गया। बचे हुए आम से सबको मालूम हुआ कि घर में एक बच्चा ग़ायब है। सबको नाम लेकर पुकारा गया तब पता चला कि नीना नहीं है। सबने कहा, “अरे देखो, खिड़की पर बैठी होगी। “ घर के सारे सदस्य खोज बीन करने में जुट गए।

लेकिन मेरे पैरों में शायद उसी दिन पंख लग गए और मैं घर से निकल कर चलते चलते गली में आ पहुँची। अकेली बच्ची को गली में घूमते देख कर मोहल्ले के मौलवी साहब मुझे अपने घर ले गए। मुझे केवल इतना ही याद है कि एक प्यारी सी आँटी जिन्होनें हरी ओढ़नी पहनी थी, मुझे अपनी गोदी में ले लिया और चम्मच से सेवैयाँ खिलाईं। कुछ देर बाद मौलवी साहब वापस गली में आ गए। उनको समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस घर में रहती हूँ क्योकि मैंने चलना शुरू नहीं किया था और मोहल्ले में किसी ने मेरा चेहरा पहले नहीं देखा था। इतने में मेरे पिताजी घबराए हुए इधर उधर धूमते हुए दिखाई दिये तब मौलवी साहब ने मुझसे पूछा, “बेटी देखो तो, यह कौन हैं?“ मैं चिल्ला कर पिताजी की ओर भागी। मुझे चलकर अपने पास आता देख कर पिताजी को इस बात की खुशी हुई कि मैंने चलना शुरु कर दिया है। इस खुशी में वह यह भी भूल गए कि सारा घर मुझे ढूँढ- ढूँढकर परेशान हो गया है।

मुझे देख कर मेरी मम्मी बहुत खुश हुईं। वह मुसलमानों के मुहल्ले में रहने के बावजूद भी हमेशा उनसे दूर ही रहती थीं। बँटवारे के दौरान उन्होने अपनी आँखों से जो कत्ल-ए-आम देखा था उसकी दहशत अब तक उनके मन में थी। इसी कारण वह मुसलमानों के प्रति उदासीन-सी थीं। मेरे गुम हो जाने और मुसलमान के घर से बरामद होने के कारण उनका दृष्टिकोण मुसलमानों के प्रति हमेशा के लिए बदल गया। उस दिन के बाद से मौलवी साहब और उनके परिवार से उनका दोस्ती का सम्बन्ध बन गया।

आज मैं इस घटना के बारे में विचार करती हूँ तो लगता है कि अंग्रेज़ों ने कूटनीति से तो एक बार में एक पाकिस्तान बनाया था लेकिन हम लोग अपने संकुचित दृष्टिकोण और संकीर्ण व्यवहार से अपने चारों तरफ रोज ही और कितने पाकिस्तान बनाते रहते हैं।