Friday, October 26, 2018


तलाश गुमशुदा की 
   बात उन दिनों की है जब मैं दो साल की उम्र में घर से लापता हो गई थी |  मेरा लालन पालन एक हिन्दू संयुक्त परिवार में हुआ था। उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में तार घर के पीछे नवाब के हाते में हमारा तीन मंजिला मकान था। हमारे हाते में हिन्दू और मुस्लमान दोनों ही परिवार रहते थे त्यौहारों में क्या मज़े की रौनक होती थी। किसी छत पर दिवाली के दिये जल रहें थे  तो कंही ईद मुबारक़ का शोर गूँजता था कंही मुहर्रम का जलूस निकल रहा था तो कंही रामलीला की झाँकी, कंही बसंत के लिये कपड़ों को पीले रँग से रंगा जा रहा था तो कंही मुहर्रम के लिये हरे रंग से। मज़ा तो तब आता जब धोबी पीले की जगह हरा या फिर हरे की जगह पीला रंग कर देता था। दोनों परिवार बाहर आकर खूब ज़ोर ज़ोर से अपनी गलती दूसरे पर थोपने में लग जाते और धोबी चुपचाप ग़ायब हो जाता था ।
     तारघर के बांयी ओर रिज़र्व बैंक है जहाँ मेरे पिताजी और चाचाजी काम करते थे, और दाईं ओर द्वारिकाधीश का मन्दिर स्थित है। हाते के अंतिम छोर पर एक मस्जिद है जहाँ से अज़ान की आवाज़ पूरे हाते में गूँजती  है घर में मेरे साथ मेरे भाई बहन और माता पिता के अलावा तीन चाचा-चाची सपरिवार रहते थे। हम सब  पूरे चौबीस बच्चे थे और हर वक्त धमा चौकड़ी मचा रखते थे
       बात उन दिनों की है जब मैं दो साल की थी और अभी चल नहीं पाती थी हालाँकि मेरी हम उम्र के दो चचेरे भाइयों ने चलना शुरु कर दिया था वो सब मेरा  मज़ाक उड़ाते थे। मैं सारा दिन शांति से खिड़की पर बैठी  सड़क पर आने जाने वालों की चहल पहल में मग्न रहती थी। सारा दिन गली में कोई ना कोई ठेले वाला आता जाता रहता था।  कोई सब्जी बेच रहा है तो कोई आइसक्रीम। मुझे उनका ऊँचे सुर में गुहार लगाना बड़ा ही मधुर लगता था। कभी कभी खिनी मेवा फालसा बेचने वाला आता तो मम्मी शर्बत बनाने के लिये फालसा ज़रूर लेती थी। मुझे तराज़ू के बाँट बड़े अच्छे लगते थे जी चाहता था कि उनको हांथों से छू कर देखूं की वज़न कैसा नापा जाता है? पर मैं तो चल नहीं पाती थी और किसी ने मुझे चलना सिखाया भी तो नहीं था। मुझे समय पर खाना पीना मिल रहा था सो मेरा शांति से बैठे रहना और ना चल पाना किसी को अखर नहीं रहा था। 
 गर्मियों का मौसम था और दोपहर को भोजन  के बाद आम खाने का दौर चलता  था सुबह पानी की बाल्टी में सबके लिये एक एक दशहरी आम भिगो दिया जाता था। आम को हम सब चूस चूस कर खाते और गुठली स्वाद लेकर चूसते। किसने कितनी अच्छी तरह गुठली साफ़ की उसकी पीठ थपथपाई जाती क्योंकि साफ़ गुठली को बगीचे में बो दिया जाता था। आम खाने का समय आया तब मेरी चचेरी बहन सुरेखा ने सबको आम बाँटे एक आम बच गया। बचे हुए आम से सबको मालूम हुआ कि घर में एक बच्चा कम है। सबको नाम लेकर पुकारा गया तब पता चला कि नीना ग़ायब  है। सबने कहा, “अरे देखो, खिड़की पर बैठी होगी।घर के सारे सदस्य खोज  में जुट गए।
       
लेकिन मेरे पैरों में शायद उसी दिन पंख लग गये।  मैं घर से निकल कर चलते चलते गली में पहुँची। मैंने आज़ सब्ज़ी वाले के ठेले पर रखे वज़न को छूने की इच्छा पूरी करने की ठानी। उस इच्छा के आवेग में मैंने कैसे सीढ़िया पार की और गली में आ पहुंची मुझे एहसास भी नहीं हुआ।  लेकिन यह क्या? सब्जी का ठेला तो कंही नज़र ही नहीं आ रहा।  एक बकरी मुर्गी के पीछे भाग रही थी , मुर्गी कुकड़ूं कडूं करती हुई मेरी ओर ही आ रही थी। अरे ! अरे! मैं थोड़ा चल कर पीछे हट गई। चलने पर पैर में कुछ कंकड़ से चुभे तो एहसास हुआ की मेरे  तो पैरों में चप्पल भी नहीं है, तब बरबस ही मेरी आँखों में आँसू आ गए।
अकेली बच्ची को गली में रोते  देख कर एक  लम्बी  सफ़ेद दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग मेरी ओर बढ़े मैं थोड़ा डरी। मुझे डरता देख करवो  मुसकराये और बोले ," डरो नहीं बेटा , मैं यहाँ का मौलवी हूँ।  तुम रोना बंद करो। "
उनकी मुस्कान से मेरा डर कुछ कम हुआ लेकिन मेरा रोना बंद नहीं हुआ।
मेरी मम्मी मुसलमानों के मुहल्ले में रहने के बावजूद भी हमेशा उनसे दूर ही रहती थीं। बँटवारे के दौरान उन्होने अपनी आँखों से जो कत्ल--आम देखा था उसकी दहशत अब तक उनके मन में थी। इसी कारण वह मुसलमानों के प्रति उदासीन-सी थीं।अनजान आदमी को अपनी  ओर आते देख क़र मेरा डरना स्वभाविक था 
मौलवी साहब मुझे अपने घर ले गए। मेरा रोना सुनकर मौलवीजी की पत्नी _दौड़कर बाहर आई | उन्होनें हरी ओढ़नी पहनी थी उन्होंने मुझे बड़े प्यार से अपनी गोदी में ले लिया और मेरे आँसू पोंछे फ़िर चम्मच से सेवैयाँ खिलाईं। कुछ देर बाद मौलवी साहब वापस गली में गए। उनको समझ में नहीं रहा था कि मैं किस घर में रहती हूँ मोहल्ले में किसी ने मेरा चेहरा पहले नहीं देखा था। इतने में मेरे पिताजी घबराए हुए इधर उधर धूमते हुए दिखाई दिये तब मौलवी साहब ने मुझसे पूछा, “बेटी देखो तो, यह कौन हैं?“ मैं चिल्ला कर पिताजी की ओर भागी। मुझे  अपने पैरों पर खड़ा देख  पिताजी खुशी के मारे यह भी भूल गए कि सारा घर मुझे ढूँढ- ढूँढकर परेशान  है।मौलवी जी ने मुझे पिताजी के पास जाते देखा तो उनकी साँस में साँस आई।  पिताजी मेरी ऊँगली पकड़ कर घर की ओर बढ़े मुझे देख कर मम्मी बहुत खुश हुईं।  मेरे गुम हो जाने और मुसलमान के घर से बरामद होने के कारण उनका दृष्टिकोण  हमेशा के लिए बदल गया। उस दिन के बाद से मौलवी साहब और उनके परिवार से हमारी दोस्ती हो गई हर साल ईद के दिन शबाना आंटी सेवैयाँ बना कर भेजती थीं और हर दिवाली में मौलवी जी सपरिवार हमारे घर आते

आज मैं इस घटना के बारे में विचार करती हूँ तो लगता है कि अंग्रेज़ों ने कूटनीति से तो एक बार में एक पाकिस्तान बनाया था लेकिन हम लोग अपने संकुचित दृष्टिकोण और संकीर्ण व्यवहार से अपने चारों तरफ रोज ही और कितने पाकिस्तान बनाते रहते हैं।
Posted by neeshi at 10:20 PM