Sunday, February 18, 2018

 आई है बसंत ऋतु न्यारी 
आई है बसंत ऋतु न्यारी
धानी परिधान पहने मुस्काती धरती प्यारी
फिर क्यूँ उलझाते मन को बीती दुःख स्मृतिओं में
खिल खिल हंस रहा आज पलाश
बीते पल की दुःख व्यथा भूल
कहता कल में ना कर सुख की तलाश
आज में ही हँसता है पलाश
आई है बसंत ऋतु न्यारी
भवरों  ने  भरी उन्मुक्त उड़ान
अपने सपनों को भी दो तुम नई उड़ान
चंचल बयार निड़र , निरन्तर बढ़ती मंजिल कीओर 
अपने ड़र को आज त्याग तुम अग्रसर हो अपनी मंजिल की ओर
आई है बसंत ऋतु न्यारी
मदन की है कैसी माया
अभिसार को आतुर कंचन कामिनी नवयौवना पीत वस्त्र में
जैसे धरती पर फैली हो सरसों
आई है बसंत ऋतु न्यारी
माँ सरस्वती पदमासन पर आरूढ़
सुर कला और ज्ञान की देवी बाँट रही अमृत सबको
भर लो अपना आँचल तुम इस ज्ञान ज्योति से
मिटे तुम्हारे जीवन से  अज्ञान, इर्षा और भेदभाव के सब भाव  
आई है बसंत ऋतु न्यारी 
धरती अपने भाल पर केसर तिलक लगाती
हँस भी देखो मोती चुगते 
नाच रहे बन -बन मोर
कोयल की कूक गूँजती चहुँ ओर
कह रही अन्याय के ख़िलाफ़ दबी पड़ी मौन आवाज़ों को तुम गूँजते स्वर दो 
अन्याय देख मत मौन बन बैठे रहो तुम 
गूँजते स्वर दो उनको 
खिलखिला रहीं तितलियाँ चहुँ ओर
तुम भी रंग लो खुद को मौसम के इस रंग
हँसों खिलखिलाओ बन तितली ,पवन ,भवरे और पलाश के फ़ूलों जैसे आज
आई है बसंत ऋतु न्यारी  
धानी परिधान पहने मुस्काती धरती प्यारी