आई है बसंत ऋतु न्यारी
धानी परिधान पहने मुस्काती धरती प्यारी
फिर क्यूँ उलझाते मन को बीती दुःख स्मृतिओं में
खिल खिल हंस रहा आज पलाश
बीते पल की दुःख व्यथा भूल
कहता कल में ना कर सुख की तलाश
आज में ही हँसता है पलाश
आई है बसंत ऋतु न्यारी
भवरों ने भरी उन्मुक्त उड़ान
अपने सपनों को भी दो तुम नई उड़ान
चंचल बयार निड़र , निरन्तर बढ़ती मंजिल कीओर
अपने ड़र को आज त्याग तुम अग्रसर हो अपनी मंजिल की ओर
आई है बसंत ऋतु न्यारी
मदन की है कैसी माया
अभिसार को आतुर कंचन कामिनी नवयौवना पीत वस्त्र में
जैसे धरती पर फैली हो सरसों
आई है बसंत ऋतु न्यारी
माँ सरस्वती पदमासन पर आरूढ़
सुर कला और ज्ञान की देवी बाँट रही अमृत सबको
भर लो अपना आँचल तुम इस ज्ञान ज्योति से
मिटे तुम्हारे जीवन से अज्ञान, इर्षा और भेदभाव के सब भाव
आई है बसंत ऋतु न्यारी
धरती अपने भाल पर केसर तिलक लगाती
हँस भी देखो मोती चुगते
नाच रहे बन -बन मोर
कोयल की कूक गूँजती चहुँ ओर
कह रही अन्याय के ख़िलाफ़ दबी पड़ी मौन आवाज़ों को तुम गूँजते स्वर दो
अन्याय देख मत मौन बन बैठे रहो तुम
गूँजते स्वर दो उनको
खिलखिला रहीं तितलियाँ चहुँ ओर
तुम भी रंग लो खुद को मौसम के इस रंग
हँसों खिलखिलाओ बन तितली ,पवन ,भवरे और पलाश के फ़ूलों जैसे आज
आई है बसंत ऋतु न्यारी
धानी परिधान पहने मुस्काती धरती प्यारी