पुरस्कार का महत्व
पुरस्कार शब्द मन में
एक उल्लास और 
उमंग का भाव जागृत
करता है। 
मैं कुछ साल तक बच्चों
के साथ डे केयर में 
काम कर चुकी हूँ। 
नौकरी करने वाले अभिभावकों
के लिए डे 
केयर एक वरदान ही है।
डे केयर में हम बच्चों
को सुरक्षित वातावरण 
में रचनात्मक दृष्टिकोण
के सहारे सम्पूर्ण 
विकास के अवसर प्रदान
करते हैं। इस
दौरान उन्हे छोटे छोटे
पुरस्कार जैसे , 
स्टिक्कर, क्रेयोंस आदि देकर उनमें गुन 
विकसित करने के लिए
प्रोत्साहित करते हैं। 
पुरस्कार पाकर उनके
चेहरे पर खुशी की 
झलक देख कर हम अध्यापिकायों
के मन में 
संतोष की लहर दौड़
जाती है। पुरस्कार का 
प्रभाव बच्चों के भोले
मन पर कितनी गहरी 
छाप छोड़ जाता है इस
बात का मैंने अनुभव 
किया है। मुझे कक्षा
दो में  मिला हुआ 
पुरस्कार और उस घटना
का विवरण अभी 
तक याद है।  
 संयुक्त परिवार में पैदा होने के कारण हमारा 
घर बच्चों से भरा हुआ
था। 
 हम सब बच्चे सारा दिन घर मे खेल कूद 
में ही व्यस्त रहते
थे। मैं और मेरी बड़ी 
बहिन किरण घर के पास
ही बाल आनंद 
स्कूल मे एक साथ पढ़ने
जाते थे। स्कूल से 
शान्ति बहनजी (अध्यापिका)
हम सबको घर 
आकर पहाडे रटाया करती
थी।उस समय मेरी 
उम्र सात साल की थी।
 मैं कक्षा दो में और मेरी बड़ी बहिन किरण 
कक्षा तीन में पढ़ते
थे। हमारी वार्षिक परीक्षा 
खत्म हो चुकी थी और
हम घर में छुटियाँ 
मना रहे थे। हर साल
१५ जून को परीक्षा 
फल घोषित होता था।
उस दिन सुबह सात 
बजे पूरे स्कूल के
बच्चे खेल के मैदान में 
एकत्रित होते थे। मैदान
के दाहिनी तरफ़ एक 
लकड़ी की स्टेज बनी
हुई है उस स्टेज पर 
हमारी सारी अद्यापिकाएं
खड़ी होकर सुबह की 
प्रार्थना में शामिल
होती थीं। स्कूल के सारे 
बच्चे मैदान में अपनी-अपनी
कक्षाओं के 
अनुसार कतारों में
खडे होते थे। प्रार्थना 
समाप्त होने के बाद
प्रधान अध्यापिका जिन्हें 
हम बड़ी बहिनजी कहते
थे, स्टेज पर आकर 
फल घोषित करती थी।
सबसे पहले उन 
बच्चों का नाम पुकारा
जाता था जिन्होंने 
अपनी अपनी कक्षा में
प्रथम तीन श्रेणियों में 
पास होने का गौरव प्राप्त
किया था। नाम के 
साथ उन विद्यार्थियों
को पुरस्कार प्रदान 
किया जाता था। अधिकतर
इस दिन किसी 
विशेष अतिथि को आमंत्रित
किया जाता था 
और उसके हाथों से इन
होनहार विद्यार्थियों 
को पुरस्कार मिलता
था। सब लोग तालियों 
से अभिनन्दन करते थे।
हर विद्यार्थी का 
सपना होता था  कि उस दिन उसे ऐसा 
गौरव मिले।
हम बड़ी बेसब्री से
इस दिन का इंतजार कर 
रहे थे। आज हमारा इंतजार
ख़त्म हुआ और 
हम दोनों स्कूल पहुंचे।
स्कूल की बिल्डिंग 
दुल्हन की तरह सजी
हुई थी। चारों तरफ 
रंग बिरंगे बन्दनवार
सजे थे। मैदान के एक 
तरफ अल्पना बनी हुई
थी जो एक दिन 
पहले हमारी कला की
अध्यापिका  के साथ 
मिल कर हमने बनाई थी।
स्टेज पर 
अतिथिओं के बैठने के
लिए मेज और 
कुर्सिओं की व्यवस्था
की गयी थी। बड़ी 
बहिनजी के लिए माइक
की व्यवस्था की 
गयी थी।बड़ी बहिनजी
ने हरी सिल्क की 
लाल बॉर्डर वाली साडी
पहनी हुई थी। उनके 
गोल चेहरे और चौडे
माथे पर लाल बिंदी 
बड़ी सज रही थी। 
सबसे पहले प्रार्थना
प्रारम्भ हुई। उसके बाद 
स्कूल के संस्थापक
जिन्हे विशेष अतिथि के 
रूप में बुलाया गया
था , स्टेज पर आये और
 किरण ने उन्हे फूलमाला पहनाई और सब 
बच्चों ने तालियों
से उनका स्वागत किया। 
उन्होने एक छोटा सा
भाषण दिया जिसका 
एक भी शब्द मेरा कानों
में नहीं पड़ा क्योंकि 
मैं तो साँस रोके केवल
परीक्षा फल के बारे
 में सोच रही थी। इसके बाद बड़ी बहिनजी 
ने वार्षिक रिपोर्ट
पढ़ी। रिपोर्ट से संस्थापकजी 
को पता चला कि स्कूल
में इस वर्ष भरती 
होने वाले बच्चों में
से कितने बच्चे उतीर्ण 
हुए। रिपोर्ट के बाद
किरण की कक्षा 
 अध्यापिका स्टेज पर आयीं उन्होने बड़ी 
बहिनजी को अपनी कक्षा
की रिपोर्ट दी। बड़ी 
बहिनजी ने सबसे पहले
किरण को अपनी 
कक्षा में प्रथम श्रेणी
में सफल होने की 
घोषणा की। किरण ने
उस दिन गुलाबी रंग 
की, सिल्क की झारल
वाली फ़्रोक पहनी हुई 
थी। उसकी दो चोटी में  गुलाबी रिबन बडे 
सुंदर लग रहे थे। किरण
का चेहरा खुशी से 
दमक रहा था, उसने स्टेज पर जाकर बड़ी 
बहिनजी का दिया हुआ
पुरस्कार बडे ही गर्व 
के साथ स्वीकार किया।
सब बच्चे तालियों 
के साथ किरण का नाम
पुकार रहे थे। 
किरण की सहेलियों में
से शोभा और सुनीता 
को दूसरी और तीसरी
श्रेणी में आने का 
अवसर मिला। तीनों को
सुंदर सी पुस्तकों 
का उपहार मिला था।
अब मेरी कक्षा की बारी
आयी तो हमारी 
शान्ति बहिनजी स्टेज
पर आईं। उनसे रिपोर्ट 
लेकर बड़ी बहिनजी ने
सबसे पहले मेरी 
सहेली कुमुद का नाम
पुकारा। कुमुद ने इस 
बार मुझे हरा दिया
और कक्षा में प्रथम 
पुरस्कार ले ही लिया।
मैं घबराई सी अपने 
मन में सोच ही रही
थी कि घर जाकर 
मम्मी से क्या कहूंगी
कि, इतने में मेरा नाम 
पुकारा गया और मैं
स्टेज की तरफ़ गयी 
बड़ी बहिनजी के हाथ
में एक कपडे का कुत्ता 
था जो उन्होने मुझे
देने की कोशिश की। 
कुत्ते को देखते ही
मैं जोर-जोर से रोने लगी। 
मुझे रोते हुए देख
कर बहिनजी घबरा गयीं 
और किरण को बुलाया।
किरण से मेरे 
अचानक रोने का कारण
पूछा, किरण ने कहा, 
"बहिनजी नीना कपडे के कुत्ते से डरती है 
आप इसे कुछ और पुरस्कार
दे दीजिए ।" 
किरण का उत्तर सुन
कर बहिनजी खूब जोर 
से हँसी और उन्होने
मुझे गोदी मे उठा 
लिया। मेरे आंसू पोंछ
कर उन्होंने मुझे एक
 लाल रंग की चाभी से चलने वाली मोटर 
प्रदान की। मोटर देख
कर मैं रोना भूल गयी 
और मोटर से खेलने में
व्यस्त हो गयी। मेरा 
मन उस समय खुशी और
गर्व से भर गया। 
सब कक्षाओं के परीक्षा
फल की घोषणाओं के 
बाद सब बच्चों को एक
-एक लिफाफे में 
चार -चार बूंदी के
लड्डू मिले। घर आकर 
हम दोनों बहिनों की
सफलता पर सबने बड़ी 
तारीफ की।
अमेरिका में आने के
कुछ समय बाद मुझे 
एक सुंदर सी लाल गाड़ी
खरीदने का 
सौभाग्य प्राप्त हुआ।
तब मुझे बरबस ही 
बचपन की लाल गाड़ी और
पूरे स्कूल से
मिला हुआ सम्मान याद
आ गया। उस 
समय के उस उल्लास के
सामने मुझे अपनी 
यह हजारों डालरों में
खरीदी हुई गाड़ी फीकी 
जान पड़ी। बचपन की वह
खुशी उस लाल
 गाड़ी में नहीं थी। बचपन का उपहार हमारी 
बहिनजी के प्यार और
प्रोत्साहन से भरा था, 
जिसे में आज अमेरिका
में हजारों डॉलर दे 
कर भी नहीं खरीद सकती।
आज मुझे 
महसूस हो रहा है कि
पुरस्कार की कीमत 
उस पर खर्च किए हुए
पैसे से नहीं आंकी जा 
सकती। पुरस्कार की
कीमत उसे देने और 
लेने वाले की भावना
में छुपी होती है। 
 

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