मेरी घायल उंगलियां और दुखी मन
मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में बीता। कानपुर शहर भारत की राजधानी दिल्ली के पास गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है कानपुर में मई , जून ,जुलाई ,के महीनों में भीषण गर्मीं पड़ती है। गर्मी में दोपहर को लू चलने से गर्मी असहनीय हो जाती है इस कारण इन दिनों स्कूल कॉलेज ग्रीष्म अवकाश के लिए बंद हो जाते हैं। घर में संयुक्त परिवार होने के कारण हम बच्चों का समय खेल कूद और मौज मस्ती में बीत जाता था। ऐसे ही कुछ दिनों की यादें मन को सहरा जाती हैं। उन दिनों ना एयर कंडीशनर थे ना कूलर और ना ही टीवी। घर को ठंडा करने के लिए खिडकियों पर खस खस की चिके लगा कर उनपर पानी का छिड़काव किया जाता था। मनोरंजन के लिए लूडो , ताश , कैरम बोर्ड आदि खेल उपलब्ध थे। कभी कभी अन्ताक्षरी भी खेल लेते थे। पिताजी और चाचाजी सुबह काम पर जाकर शाम को लौटते थे। दोपहर में गर्मी बहुत बढ़ जाती है तब घर के बड़े कमरे में मम्मी और
चाचियाँ सब बच्चों के सोने का प्रबंध कर देती थीं। कमरे की खिड़किओं पर खस खस की चिकों पर पानी का छिड़काव करके कमरा खूब ठंडा हो जाता था कमरे के बीचोंबीच एक बड़ा घड़ा पानी से भर कर रख दिया जाता था ताकि बच्चों को दोपहर को कमरे से बाहर ना जाना पड़े। एक बार मटके से पानी निकालते समय मेरे हाथ से गिलास फिसल गया और मटका फूटते ही पूरा कमरा पानी से भर गया तब बुआ( पिताजी की बहन ) ने जो डांट फटकार लगाई वो आज तक नहीं भूली।
उन दिनों मटका और सुराही फूटना और डांट फटकार का पड़ना रोज का काम था लेकिन कब किसकी बारी आती है यह कहना मुश्किल था। शाम को छत के फर्श और दीवारों पर पानी डाल कर उसे ठंडा कर देते थे फिर सब लोग छत पर आ कर बैठ जाते थे। ऐसे ही एक दिन शाम को सब लोग छत पर बैठे थे। सबके बार बार पानी मागने पर मैंने आगे बढ कर कहा की मैं सबके लिए पानी ले आती हूँ क्योंकि हम सब मिलकर अन्ताक्षरी खेलने वाले थे और मैं उसमे पूरी तरह भाग लेना चाहती थी। अब मैने कह तो दिया की मै सबके लिए पानी लेकर आती हूँ लेकिन कैसे ? क्यों ना पूरी भरी हुई सुराही ले जाऊँ , लेकिन अभी अभी मैंने नहा कर सूंदर सी फ्रॉक पहनी है जो सुराही उठाने से मिट्टी से सन जाएगी। फिर दिमाग ने सुझाया एक उपाय। मैंने पानी से भरी सुराही को अख़बार में लपेटा और छत पर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ना शुरू किया। चढ़ते चढते कुछ शोर सुनाई दिया शायद सामने मस्जिद से अज़ान की आवाज़ गूंजी होगी। जो भी हो मेरा ध्यान कुछ पल के भटका और मेरा संतुलन बिगड़ा और ज़ोर का धमाका हुआ इससे पहले की मैं समझूँ की क्या हुआ है मेरी बड़ी बहन शारदा मेरी ओर आई और जोर जोर से ताली बजा बजा कर चिल्लाने लगी , '' अरे!!!अरे !!! सब लोग आकर देखो नीना ने फिर से आज सुराही फोड़ दी।" उसके चिल्लाने पर मुझे समझ में आया की क्या क्या हो गया है। अख़बार से सुराही फिसल कर सीढ़िओं पर गिर कर टुकडे टुकड़े हो गई। सुराही का पानी पूरी सीढ़िओं पर फैल गया। मैं सुराही को फिसलने से रोकने के लिये आगे की ओर झूकी तो मेरी उँगलियाँ नीचे , टूटी हुई सुराही मेरी उंगलिओं के ऊपर और उसके ऊपर मेरा झुका हुआ दस साल का शरीर। शरीर का और सुराही का भार मेरी कोमल ऊंगलिओं के लिये असहनीय हो गया और मैं दर्द से तड़प कर रोने लगी। शारदा हमेशा ऐसे ही ताली बजा बजा कर हँसती है इस लिये कोई उसके हँसने पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। पर मेरा रोना हैरानी की बात था। मैं बहुत सहनशील हूँ और आसानी से रोना या हार मानना मैंने नहीं सीखा। सो मेरा रोना सुन कर बुआ दौड़ते हुए मेरे पास आयीं और मेरी जख्मी उंगलिओं को सहलाने लगी धीरे धीरे पानी की प्यास भूल कर सब लोग मेरे पास आये । कोई गिरा हुआ पानी पोछे से सूखा रहा है कोई टूटी हुई सुराही का अस्थि पिंजर उठा रहा। चाची कह रहीं हैं , "इतनी बड़ी सुराही ,वो भी पानी से भरी हुई , किसने उठाने को कहा और उठाई तो उठाई अख़बार में लपटने की बेवकूफी करने को किसने कहा था ?"मैं अपनी घायल उंगलिओं के दर्द से तड़प रहीं हूँ और यह सब लोग अपनी पंचायत में लग कर मुझे ही दोष लगाने पर तुले हैं। यह सब सुनकर मैंने और जोर जोर से रोना शुरू कर दिया। इस पर मम्मी ने मुझे गोद में उठाने की कोशिश की तो पता चला की मेरी सुन्दर सी फ्रॉक जिसको बचाने की कोशिश में इतना बड़ा हादसा हो गया है वोह तो पूरी तरह से गीली तो गीली मिट्टी से भी पूरी तरह सन गई है। मुझे लगा अब तो मम्मी फ्रॉक गंदी करने की कुछ तो सजा देंगी कम से कम डांट तो जरूर पड़ेगी। मम्मी कुछ कहे इससे पहले पिताजी मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घर के पास वाले दवाखाने में ले गए। डॉक्टर ने मेरे हाथ की मलहम पट्टी की और मुझे खाने के लिये कुछ मीठी गोलिआं भी दी। घर आने तक सब लोग अन्ताक्षरी में मग्न हो गए थे और बाकि की डांट फटकार का किस्सा वहीं खत्म हो गया ऐसा मैंने सोचा क्योंकि रात के खाने के बाद मैं आराम से सो गई। अगले दिन जब मम्मी ने मेरी फ्रॉक धोने के लिए उठाई तो पता चला की फ्रॉक गंदी होने के साथ साथ थोड़ी फट भी गई थी। शायद सुराही के टुकडे से रगड़ लग गई होगी। मम्मी फ्रॉक को धोबी से धुलवा लेती लेकिन फटी फ्रॉक को सिलेगा कौन ? इस पर तो सज़ा निश्चित ही मिलेगी। सो मम्मी ने मुझे पास बुलाया और फ्रॉक की पूरी पुराण कथा सुनाना शुरू कर दिया किसने कपड़ा चुना कहाँ से सिलवाई किसने तोहफ़े के रूप में मुझे दी। एक मामूली सी फ्रॉक आज इतनी महत्वपूर्ण और नायाब कैसे हो गई यह जान कर मुझे अपनी घायल उंगलिओं की बजाए अपनी फटी हुई फ्रॉक ज़्यादा घायल लगने लगी। पर मैं भी हार कहाँ मानने वाली थी मैंने मम्मी से कहा की इस परेशानी का हल मैं खुद ही निकालूंगी। अगले दिन मैंने चाची से सुई धागा माँगा तो उन्होंने कहा , " क्यों भाई अब क्या करने का इरादा है "
मरता क्या ना करता मुझे चाची को फटी हुई फ्रॉक और उसके नायाब होने का इतिहास जो मैंने अपनी मम्मी से सुना था पूरा बताना पड़ा। सुई मिली धागा मिला चाची ने सिलाई करने में पूरी मदद भी कर दी पर अनजाने में ही सही जो मुझे नहीं करना चाहिए था वो मैंने कर दिया। फ्रॉक के इतिहास को बताते बताते मैंने मम्मी के कई छुपे हुए राज चाची तक पहुंचा दिए। मम्मी अपने बच्चों के लिये तो यह करती वोह करती हैं और हमारे बच्चों के लिया क्यों नहीं करती संयुक्त परिवार में भेदभाव होना घर की सुख शांति के लिए अच्छा नहीं होता। सो पहले तो चाची और मम्मी का कई दिन तक मनमुटाव चलता रहा जिसकी भरपाई करना मम्मी को काफी कष्टदायक और महंगा लगा। मुझे भी थोड़ा डांट और थोड़ा प्यार से मम्मी ने समझाया की मैंने चाची को वोह बातें क्यों बताईं जो सिर्फ मेरे लिये कही गयी थीं। मुझे कुछ समझ में आया कुछ नहीं लेकिन फ्रॉक के इतिहास ने जो पूरे घर को हिला डाला ख़ास कर मम्मी को जो कष्ट हुआ उसका मुझे अपनी फ्रॉक और उंगलिओं के घायल होने से भी बड़ा लगा।
1 comment:
Wrote it for Saurabh
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