Sunday, January 10, 2016

ख़ुशी की सीमा 

सीमा के हाथ  में तलाक के कागज़ थे , सोच में पड़ी है पिछले एक साल से दौड़

भाग और कचहरी की हाजरी भरने से छुट्टी मिली।  रोज़ रोज का सुबह चार बजे से

कुकर का शोर बंद हो जायेगा। आधी-आधी रात को उठ कर पतिदेव को खाना पका

कर खिलाने से छुट्टी मिलेगी , ससुराल वालों के ताने शान्त हो जाएंगे ऐसी ही

अनगिनत जिम्मेदारियों से हमेशा के लिये छुटकारा मिल जायेगा।

वाह! फिर तो आजादी से जिंदगी जीने का अवसर सीमा पा जायेगी।  इतना सुनहरा

भविष्य दिख रहा है फिर भी सीमा को ख़ुशी का अहसास क्यों नहीं हो रहा। आज तो

सीमा को ख़ुशी से झूमना चाहिये, लेकिन उसका मन दुःखी क्यों हो रहा है. क्या

उसकी आज़ादी अकेलेपन  और अवसाद से घिरी हुई लग रही है ? क्या जीतने के

प्रयास में उसने  हार ही हासिल की है ? ऐसे ही कितने विचारोँ में घिरी हुई अचानक

चौंकी किसी ने उसके आँचल के छोर को खींचा । सीमा ने घूमकर देखा उसकी नन्ही

बेटी सोना मुस्कराकर उसकी ओऱ देख रही है। सोना की मुस्कराती  हुई आँखों में  सीमा

को एक उजले भविष्य की झलक दिखलाई दी। आज सब कुछ खोने के बाद सोना के

जिंदगी में होने से जैसे सीमा  की खुशियों की कोई सीमा ही नहीं रही है।

Sunday, October 19, 2014

दादी नहीं सुनाती दीवाली की कहानी 

दादी नहीं सुनाती दीवाली की कहानी 

क्योंकि नहीं देखने को मिलती चारों भाईओं की जोड़ी किसी भी घर में अब 

अटूट प्रेम का बंधन टूटा , हार-जीत की होड़ लगी है सबमें 

मंथरा की कूटनीति की कुटिलता दिखती है हर घर में 

कैकई की डाह जल रही है हर घर मेँ, हर गली मेँ 

लेकिन कहीं कहीं ही मिलती है कौशल्या और सुमित्रा माता की ममता की छईयाँ 

स्वार्थों के घेरे मेँ बंध कर दम तोड़ रहें हैं सब रिश्ते प्यारे 

भगवान राम बनवास जाने को तैयार खड़े हैँ न्यारे 

पर नहीँ दिखती है कहीँ पर भी लक्ष्मण की निष्ठा और भक्ति प्यारे 

सीता सहते-सहते थक गई है और बनवास से पहले ही अलग हुई है अपने प्यारे राम से 

दादी नहीं सुनाती दीवाली की कहानी 

क्योँकि राम लक्ष्मण -सीता की कोई भी एक जोड़ी बनवास से लौट कर अयोध्या की ओर नहीं आती 

आस देखती बैठी है अब दादी 

दादी नहीं सुनाती दीवाली की अब कोई कहानी 


Tuesday, June 10, 2014

होली की सॉगातें भेजो

होली के अवसर पर आज होली की कुछ सौगातें भेजो

इस बेगाने देश   में आज मेरी होली भी रंगीन बना दो

खेल सकू मैं होली ऐसी ही कुछ सौगातें भेजो

होली की सौगातें भेजो

अबीर, गुलाल और टेसू के  फूलों सी रंगीनी भेजो

रंगो की बारातें भेजो

होली की सौगातें भेजो

ज्ञान ग्रन्थों मेँ दबी पड़ी कुछ सपनों की गुलाबी पंखुरियां भेजो

होली की सौगातें भेजो

माँ के हाथों बने पकवानों की थाली भेजो

गुजिया, मठरी, मेवा, मिश्री और लड्डू भेजो

माँ के नेह से भीजि इमरती भेजो

पकवानों की ममता झरी महक भेजो

मेरे मन आँगन में आशीर्वादों की जो झड़ी लगा दे

ऐसी ही कुछ सौगातें भेजो

होली की सौगातें भेजो

रिश्तों की रंगीन फुहारें भेजो

बाबुल की कुछ दुलार भरी फटकारें भेजो

भाभी की कुछ मनुहार भरी शीतलता भेजो

देवर-भाभी की चुलबुली-दुलार भरी सौगातें भेजो

जीजा-साली की छेड छाड़ की सौगातें भेजो

रिश्तों की  रंगीन फुहारें भेजो 

होली की सौगातें भेजो

नटखट कान्हा की अठखेलियों भरी पिचकारी भेजो 

राधा की लजाती, लरज़ती धानी चुनार भेजो 

सखियों की हँसी-ठिठोली भेजो 

उमँग और उल्लासों से भरी ख़ुशियों की सौगातें भेजो

होली की सौगातें भेजो

युगल प्रेम की मान मनुहार भेजो 

तन मन प्रेम के रसरंग से भीग उठे ऐसी ही  सौगातें भेजो

होली की सौगातें भेजो

सूर्य की लालिमा लिये नीले आसमां के तले हरितम् धरा से जो भेदभाव की कालिमा मिटा दे 

ऐसी ही प्रकाश की एक उज्जवल, श्वेत, धवल किरण भेजो 

प्रकाश की एक किरण जो गरीब-अमीर, छोटे-बड़े, काले-गोरे , नीले-पीले, हरे-बैंगनी, लाल-गुलाबी सारे 

इन्द्रधनुषी रंगों को अपने में समेट कर एक उज्जवल सफेद किरण का रूप धारण कर सके ऐसी ही एक केवल 

एक प्रकाश की किरण भेज दो 

भेज सको तो केवल एक प्रकाश की किरण भेज दो 

होली की सौगातें भेजो

खेल सकूँ मैं प्रेम, शान्ति, सद्भावना रंगी होली आज 

ऐसी ही कुछ सौगातें भेजो

इस बेगाने देश में मेरी भी होली को रंगीन बना दो 

खेल सकूँ मैं होली आज ऐसी ही कुछ  सौगातें भेजो

होली की सौगातें भेजो










उड़ने दे मुझे, उड़ने दे मुझे खोल दे पिंजरा उड़ने दे मुझे


उड़ने दे मुझे, उड़ने दे मुझे खोल दे पिंजरा उड़ने दे मुझे

उड़ने दे मुझे, उड़ने दे मुझे

उन्मुक्त पवन सा मुझे उड़ने दे मुझे उड़ने दे मुझे

उड़ने दे मुझे उड़ने दे मुझे

नील गगन ही थांव मेरी

पँख हैं कोमल कठोर इरादे

उड़ने दे मुझे उड़ने दे मुझे

खिलने दे मुझे खिलने दे मुझे खिलने दे

कोमल कली जान ना मसल मुझे

खिलने से पहले ही ना कुचल मुझे

खिलने दे मुझे खिलने दे मुझे खिलने दे

महकने दे मुझे सुवासित पुष्प बनूँ मैं

खिलने दे मुझे खिलने दे मुझे खिलने दे

पढ़ने दे मुझे, पढ़ने दे मुझे

ज्ञान ही है शक्ति मेरी

विद्धालय ही है आलय मेरा

पढ़ने दे मुझे पढ़ने दे मुझे

घर के घेरे में ना घेर मुझे पढ़ने दे मुझे

पढ़ने दे मुझे

पढ़ने दे मुझे

ओस की बूँद सी हूँ मैं शीतलता ही है तासीर मेरी

ना झोंक मुझे सँघर्षों की तपती लू में

सूखा दे जो मेरा ही असतित्व

उड़ने दे मुझे उड़ने दे मुझे उड़ने दे

भाई है तू मेरा तो बाँध मुझे राखी आज

रक्षा की तूने मेरी रक्षक बनूं मैं तेरी आज

शक्ति मुझमें भी है भूल ना जाना आज

सम्मान करो मेरी शक्ति का ललकारो ना मेरी शक्ति को

दो परिवारों की आन बान और शान हूँ मैं 

माँ, बहन, बेटी, बहू के बंधन में जकड़ मुझे तुम दान- बलिदान की वस्तु ना बना देना 

मैंने धरती, आसमान, समुन्दर, पर्वत, पहाड़ सब पर अपने प्रभुत्व का परचम लहराया 

सम्मान करो मेरी शक्ति का सम्मान करो मेरी शक्ति का

उड़ने दे मुझे उड़ने दे मुझे उड़ने दे

खिलने दे मुझे खिलने दे मुझे

बनूँ सुवासित पुष्प मैं

महकने दे मुझे महकने दे


Friday, April 12, 2013

Sunday, March 10, 2013


बुझा ना देना ज्योति पुँज यह ज्योति ने जलकर जलाया इसे है


बुझा ना देना ज्योति पुँज यह ज्योति ने जलकर जलाया इसे है 

बेटी, बहन, माँ बनकर सदियों से लुटाई है ममता इसने

पाया ना कभी सम्मान उसने, अबला बनकर सहा हर प्रहार उसने

स्नेह और सुरक्षा के भ्रम में उसके ही परिवार ने कुचला है व्यक्तित्व उसका

असतित्व छिनता, बिखरता रहा उसका हर गली, हर शहर में

लूटने वाले हाथ भी कोई और नहीं, उसके अपने ही अधिकारी, सत्ताधीन रहे हैं

लुटने वाले नाम अनेक हैं, हर गली, हर शहर में सुने हैं

एक नाम सुना है, सोनी सूरी, जो लुटी है, छली है अपने ही सत्ताधीन के हाथों से

माँग रही है इंसाफ बनकर एक नारी शक्ति WRise

कदम उसके उठ चुके हैं नहीं रूकेंगे, नहीं थमेंगे

न्याय के लिये उठे ये कदम नहीं रूकेंगे

नहीं झुकेंगे किसी अन्याय के समक्ष

सक्षम है हर क्षेत्र में एक नारी

फिर उसकी आज़ादी क्यों है समाज पर भारी

आज़ादी, सम्मान, प्रतिष्ठा की वो है अधिकारी

मिले उसको उसके हिस्से की हकदारी

नहीं तो पड़ेगी हर नारी शक्ति समस्त विश्व पर भारी

क्योंकि जल रहा है ज्योतिपुँज यह ज्योति ने जलकर जलाया जिसे है

Sunday, December 2, 2012


पुरस्कार का महत्व

पुरस्कार शब्द मन में एक उल्लास और

उमंग का भाव जागृत करता है।

मैं कुछ साल तक बच्चों के साथ डे केयर में

काम कर चुकी हूँ।

नौकरी करने वाले अभिभावकों के लिए डे

केयर एक वरदान ही है।

डे केयर में हम बच्चों को सुरक्षित वातावरण

में रचनात्मक दृष्टिकोण के सहारे सम्पूर्ण

विकास के अवसर प्रदान करते हैं। इस

दौरान उन्हे छोटे छोटे पुरस्कार जैसे ,

स्टिक्कर, क्रेयोंस आदि देकर उनमें गुन

विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

पुरस्कार पाकर उनके चेहरे पर खुशी की

झलक देख कर हम अध्यापिकायों के मन में

संतोष की लहर दौड़ जाती है। पुरस्कार का

प्रभाव बच्चों के भोले मन पर कितनी गहरी

छाप छोड़ जाता है इस बात का मैंने अनुभव

किया है। मुझे कक्षा दो में  मिला हुआ

पुरस्कार और उस घटना का विवरण अभी

तक याद है।  

 संयुक्त परिवार में पैदा होने के कारण हमारा

घर बच्चों से भरा हुआ था।

 हम सब बच्चे सारा दिन घर मे खेल कूद

में ही व्यस्त रहते थे। मैं और मेरी बड़ी

बहिन किरण घर के पास ही बाल आनंद

स्कूल मे एक साथ पढ़ने जाते थे। स्कूल से

शान्ति बहनजी (अध्यापिका) हम सबको घर

आकर पहाडे रटाया करती थी।उस समय मेरी

उम्र सात साल की थी।

 मैं कक्षा दो में और मेरी बड़ी बहिन किरण

कक्षा तीन में पढ़ते थे। हमारी वार्षिक परीक्षा

खत्म हो चुकी थी और हम घर में छुटियाँ

मना रहे थे। हर साल १५ जून को परीक्षा

फल घोषित होता था। उस दिन सुबह सात

बजे पूरे स्कूल के बच्चे खेल के मैदान में

एकत्रित होते थे। मैदान के दाहिनी तरफ़ एक

लकड़ी की स्टेज बनी हुई है उस स्टेज पर

हमारी सारी अद्यापिकाएं खड़ी होकर सुबह की

प्रार्थना में शामिल होती थीं। स्कूल के सारे

बच्चे मैदान में अपनी-अपनी कक्षाओं के

अनुसार कतारों में खडे होते थे। प्रार्थना

समाप्त होने के बाद प्रधान अध्यापिका जिन्हें

हम बड़ी बहिनजी कहते थे, स्टेज पर आकर

फल घोषित करती थी। सबसे पहले उन

बच्चों का नाम पुकारा जाता था जिन्होंने

अपनी अपनी कक्षा में प्रथम तीन श्रेणियों में

पास होने का गौरव प्राप्त किया था। नाम के

साथ उन विद्यार्थियों को पुरस्कार प्रदान

किया जाता था। अधिकतर इस दिन किसी

विशेष अतिथि को आमंत्रित किया जाता था

और उसके हाथों से इन होनहार विद्यार्थियों

को पुरस्कार मिलता था। सब लोग तालियों

से अभिनन्दन करते थे। हर विद्यार्थी का

सपना होता था  कि उस दिन उसे ऐसा

गौरव मिले।

हम बड़ी बेसब्री से इस दिन का इंतजार कर

रहे थे। आज हमारा इंतजार ख़त्म हुआ और

हम दोनों स्कूल पहुंचे। स्कूल की बिल्डिंग

दुल्हन की तरह सजी हुई थी। चारों तरफ

रंग बिरंगे बन्दनवार सजे थे। मैदान के एक

तरफ अल्पना बनी हुई थी जो एक दिन

पहले हमारी कला की अध्यापिका  के साथ

मिल कर हमने बनाई थी। स्टेज पर

अतिथिओं के बैठने के लिए मेज और

कुर्सिओं की व्यवस्था की गयी थी। बड़ी

बहिनजी के लिए माइक की व्यवस्था की

गयी थी।बड़ी बहिनजी ने हरी सिल्क की

लाल बॉर्डर वाली साडी पहनी हुई थी। उनके

गोल चेहरे और चौडे माथे पर लाल बिंदी

बड़ी सज रही थी।


सबसे पहले प्रार्थना प्रारम्भ हुई। उसके बाद
स्कूल के संस्थापक जिन्हे विशेष अतिथि के

रूप में बुलाया गया था , स्टेज पर आये और

 किरण ने उन्हे फूलमाला पहनाई और सब

बच्चों ने तालियों से उनका स्वागत किया।

उन्होने एक छोटा सा भाषण दिया जिसका

एक भी शब्द मेरा कानों में नहीं पड़ा क्योंकि

मैं तो साँस रोके केवल परीक्षा फल के बारे

 में सोच रही थी। इसके बाद बड़ी बहिनजी

ने वार्षिक रिपोर्ट पढ़ी। रिपोर्ट से संस्थापकजी

को पता चला कि स्कूल में इस वर्ष भरती

होने वाले बच्चों में से कितने बच्चे उतीर्ण

हुए। रिपोर्ट के बाद किरण की कक्षा

 अध्यापिका स्टेज पर आयीं उन्होने बड़ी

बहिनजी को अपनी कक्षा की रिपोर्ट दी। बड़ी

बहिनजी ने सबसे पहले किरण को अपनी

कक्षा में प्रथम श्रेणी में सफल होने की

घोषणा की। किरण ने उस दिन गुलाबी रंग

की, सिल्क की झारल वाली फ़्रोक पहनी हुई

थी। उसकी दो चोटी में  गुलाबी रिबन बडे

सुंदर लग रहे थे। किरण का चेहरा खुशी से

दमक रहा था, उसने स्टेज पर जाकर बड़ी

बहिनजी का दिया हुआ पुरस्कार बडे ही गर्व

के साथ स्वीकार किया। सब बच्चे तालियों

के साथ किरण का नाम पुकार रहे थे।

किरण की सहेलियों में से शोभा और सुनीता

को दूसरी और तीसरी श्रेणी में आने का

अवसर मिला। तीनों को सुंदर सी पुस्तकों

का उपहार मिला था।

अब मेरी कक्षा की बारी आयी तो हमारी

शान्ति बहिनजी स्टेज पर आईं। उनसे रिपोर्ट

लेकर बड़ी बहिनजी ने सबसे पहले मेरी

सहेली कुमुद का नाम पुकारा। कुमुद ने इस

बार मुझे हरा दिया और कक्षा में प्रथम

पुरस्कार ले ही लिया। मैं घबराई सी अपने

मन में सोच ही रही थी कि घर जाकर

मम्मी से क्या कहूंगी कि, इतने में मेरा नाम

पुकारा गया और मैं स्टेज की तरफ़ गयी

बड़ी बहिनजी के हाथ में एक कपडे का कुत्ता

था जो उन्होने मुझे देने की कोशिश की।

कुत्ते को देखते ही मैं जोर-जोर से रोने लगी।

मुझे रोते हुए देख कर बहिनजी घबरा गयीं

और किरण को बुलाया। किरण से मेरे

अचानक रोने का कारण पूछा, किरण ने कहा,

"बहिनजी नीना कपडे के कुत्ते से डरती है

आप इसे कुछ और पुरस्कार दे दीजिए ।"

किरण का उत्तर सुन कर बहिनजी खूब जोर

से हँसी और उन्होने मुझे गोदी मे उठा

लिया। मेरे आंसू पोंछ कर उन्होंने मुझे एक

 लाल रंग की चाभी से चलने वाली मोटर

प्रदान की। मोटर देख कर मैं रोना भूल गयी

और मोटर से खेलने में व्यस्त हो गयी। मेरा

मन उस समय खुशी और गर्व से भर गया।

सब कक्षाओं के परीक्षा फल की घोषणाओं के

बाद सब बच्चों को एक -एक लिफाफे में

चार -चार बूंदी के लड्डू मिले। घर आकर

हम दोनों बहिनों की सफलता पर सबने बड़ी

तारीफ की।

अमेरिका में आने के कुछ समय बाद मुझे

एक सुंदर सी लाल गाड़ी खरीदने का

सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब मुझे बरबस ही

बचपन की लाल गाड़ी और पूरे स्कूल से

मिला हुआ सम्मान याद आ गया। उस

समय के उस उल्लास के सामने मुझे अपनी

यह हजारों डालरों में खरीदी हुई गाड़ी फीकी

जान पड़ी। बचपन की वह खुशी उस लाल

 गाड़ी में नहीं थी। बचपन का उपहार हमारी

बहिनजी के प्यार और प्रोत्साहन से भरा था,

जिसे में आज अमेरिका में हजारों डॉलर दे

कर भी नहीं खरीद सकती। आज मुझे

महसूस हो रहा है कि पुरस्कार की कीमत

उस पर खर्च किए हुए पैसे से नहीं आंकी जा

सकती। पुरस्कार की कीमत उसे देने और



लेने वाले की भावना में छुपी होती है।