Thursday, January 22, 2009

हार की जीत

हम चाहे भारत में हों या अमेरिका में, अपनी स्वभाव और आदतों के गुलाम हैं।
पहली बार जब हम किसी व्यक्ति से मिलते हैं तब हम उसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। उसका पहनावा, बोलचाल का ढंग और विशेष तौर पर उसके शरीर पर सजे हुये आभूषण और श्रृंगार पर हमारी पैनी दृष्टि जाती है। जैसे जैसे हम उस व्यक्ति के नजदीक आते हैं, हम उसके सारे अवगुण भांप लेते हैं लेकिन उसके गुणों पर हमारी दृष्टि नहीं जाती है। इसी सन्दर्भ में मुझे अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया।
मेरा पालन पोषण एक संयुक्त परिवार में हुआ है। घर में मेरे माता पिता और मेरे भाई बहनों के अलावा मेरे तीन चाचा चाची, उनका परिवार और दो कुंवारी बुआ भी रहती थीं। कानपुर में मॉल रोड पर हमारा घर था। हमारे घर से कुछ दूर बिरहाना रोड पर तपेस्वरि देवी जी का मन्दिर है। मन्दिर में नवरात्री के दिनों में मेला लगता हैं। मेले में बहुत भीड़ हो जाती थी परन्तु देवी जी के दर्शन के बहाने हमे उस दौरान एक- दो बार जाने का अवसर मिल जाता था। भीड़ की वजह से चाची और मम्मी सुबह जल्दी जातीं थीं, हम लोगों को साथ जाना हो तो हमे सुबह जल्दी उठ कर नहाना धोना पड़ता था। मन्दिर और मेले के आकर्षण के कारण हम चारों बहनें सुबह जल्दी उठ कर मन्दिर जाने के लिए तैयार हो जातीं थीं। मन्दिर में देवी दर्शन के बाद हम लोग ढेर सारी कांच की चूडियाँ और हार खरीद कर लाते थे। जूतों के खाली डिब्बों में चूडियाँ रख लेते थे। चूडिओं से डिब्बे भर जाते थे, लेकिन रंग-बिरंगी खनकती कांच की चूडिओं से मन कभी नहीं भरता था। मेला ख़तम होने के कितने दिन बाद तक भी मै चूडिओं के सपने देखा करती थी।
बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र सात साल के करीब की होगी। उन दिनों मेरे सबसे छोटे चाचाजी की नई-नई शादी हुई थी। चाचाजी रिज़र्व बैंक में क्लर्क थे और चाची के पिता एक सम्पन्न व्यापारी थे। चाची हर समय कीमती कपडों और गहनों से सजी संवरी रहती थीं। उनके श्रृंगार और सजावट के कारण दोनों बुआ और बड़ी चाची को उनसे बड़ी जलन होती थी, वो लोग मिल कर दबी जबान से नयी चाची की बात-बात पर आलोचना करतीं रहतीं थीं। नयी चाची सब सुनकर भी चुपचाप काम में व्यस्त रहती थीं। एक दिन पिताजी घर में एक फोटोग्राफर को लेकर आए जिससे बच्चों की ग्रुप ली जा सके। छत पर सुंदर फूलों वाली चादर टांग कर फोटोग्राफर कैमरा तैयार कर लिया। चादर के आगे एक लकड़ी की बेंच रख दी गयी जिस पर हम लोगों को बिठाया जाना था। सारी व्यवस्था हो जाने के बाद पिताजी ने हम सब को तैयार हो कर छत पर बुलाया। मम्मी ने हम सबको नयी सिल्क की फ्रोक्स पहनने के लिए दी। मेरी बहनों ने अपनी चूडियाँ और हार भी निकल कर पहन लिए। मेरे पास हार नहीं था। मैंने बहनों से हार माँगा तब उन्होने मुझे मना कर दिया और मैं जोर- जोर से रोने लगी उधर पिताजी चिल्ला रहे थे , " जल्दी आयो फोटोग्राफर को देर हो रही है"। मेरा रोना और पिताजी का चिल्लाना सुन कर नयी चाची अपने कमरे से बाहर आयी मुझे रोता देख कर गोदी में उठा कर अपने कमरे में ले गयींमेरा मुहँ धो कर पाउडर लगाया और रोने का कारण पूछा मैंने कहा, " मुझे तो हार पहन कर ही फोटो खिंचवानी है।" इतना सुनना था की चाची हंस पड़ी और अपना सोने का हार अपनी गले से उतार कर मुझे पहना कर छत पर ले आयीं और हमलोगो का ग्रुप फोटो खिंच गयाचाची की सूझ बुझ और दरियादिली देख कर मम्मी ने उन्हें गले से लगा लिया और आलोचना करने वालों के मुंह हमेशा के लिए बंद हो गयेघर के सभी लोग चाची को प्यार और सम्मान की दृष्टि से देखने लगेउस हार से चाची ने मेरे साथ-साथ सबके मन को जीत कर हार को जीत में बदल दिया

2 comments:

neeshi said...

I read this short story at Columbia University West 660 122 street NY in Kahani Manch in front of Dr. Susham Bedi on May 3rd, 2014.It was published in Saurabh magazine.

neeshi said...

I read this short story at Columbia University West 660 122 street NY in Kahani Manch in front of Dr. Susham Bedi on May 3rd, 2014.It was published in Saurabh magazine.