Friday, February 17, 2017

चींटियॉ कलाइयों वे ट्रम्प तेरी चींटियॉ कलाइयों वे

चींटियॉ कलाइयों वे ट्रम्प तेरी चींटियॉ कलाइयों वे

मत कर काला इनको तू अपनी काली करतूतों से 

चार दिनों में ही हिला दी तूने पूरी सत्ता 

करना था जो सो किया नहीं आतंकी बन बैठा है तू 

अपनी गोरी कौम को खुशहाल करने की तूती बजा रहा है तू 

काले भूरे हरे नीले  सबको अपनी गोरी कौम का दुश्मन समझ रहा है तू 

हर रंगीन सख्श को देश निकाला दे रहा है तू 

भूल रहा क्या तू  हर रंगीन सख्श को बना गुलाम सेवा करवाई गोरों ने 

ऐसा सेवा के आदि क्या रह पाएंगे खुशहाल अकेले 

वैसे भी हर गोरा एकांत से घबरा कर पूरब की संस्कृति अपनाने को तरस रहा 

ओने पौने देकर कहीं योगा और कहीं धयान में धूनी रमा रहा 

हर विदेशी बस्तुओं को परदेशों से मंगा रहा 

ऐसी कौन सी बस्तु है जो गोरों ने अपने गोरे हाथों से बनाई है 

काली ना हुई कलाइयाँ कालों की बना बना कर भर डाला बाज़ार 

गोरा पैसे फ़ेंक खरीद रहा सब 

सिखला दो तुम अपनी गोरी कौम को स्वावलम्बन का पाठ 

रोक सको तो रोक लो उनको पूरब की संस्कृति अपनाने से 

नहीं तो मान लो अपनी हार और जियो और जीने दो सबको हमवतनों  की तरह इस धरती पर 

कदर करो उन सांसो की जो अपना खून पसीना बहा कर अपने जीने के साधन जुटाने में ही 

टूट रही हैं टूट टूट कर इस वतन से जुड़ने का प्रयास कर रहीं हैं

चींटियॉ कलाइयों वे ट्रम्प तेरी चींटियॉ कलाइयों वे

मत कर काला इनको तू अपनी काली करतूतों से 





Friday, January 20, 2017



हर वक्त बदल जाता है बदलना हमें नहीं भाता है
हर वक्त बदल जाता है 
बदलना हमें नहीं भाता है 
अपना आरामदेह कोना ही हमें भाता है 
बदलना हमें नहीं भाता है
 हर नयापन हमें डरा जाता है 
अन्होनि आशंकायों से हमारा पुराना नाता है 
बदलना हमें नहीं भाता है 
हर वक्त बदल जाता है 
ऋतुएँ ने बदनलना नहीं छोड़ा 
पेड़ों के बदले परिधानों संग हमने अपनी पौशाकों को हर बार बदला है 
फिर बदलना हमें क्यों नहीं भाता है 
दिन भर रौशनी बिखेरने के बाद सूरज भी सो जाता है 
हर वक्त बदल जाता है 
बदलना हमे क्यों नहीं भाता है 
हर वक्त बदल जाता है 
सत्ता भी बदल गई है आज 
हम डरे सहमे क्यों हैं 
अधिकारों की वही पुरानी जंग है 
जंग आज भी जारी है 
इस जंग पर डर और आशंकाओं का जंग ना लगने देंगे हम कभी
क्यों हम अपना आरामदेह कोना छिन जाने से सहम रहे है 
जो कोना हमारा अस्तित्व है उसे कोई सत्ता छिन सके 
ऐसे भी कमज़ोर नहीं हुए है हम 
अपने अधिकारों को क़ायम रखना हमें आता है  
अपने अस्तिव को किसी भी सत्ता के आगे झुकने नहीं देंगे 
जंग आज भी जारी है 
सत्ता बदले बदले मौसम हम हम ही हैं हम ही रहेंगे

Friday, December 16, 2016

उम्मीदों भरी शाम आई है 

नूतन वर्ष को दस्तक दे रही उम्मीदों भरी शाम आई है

 नूतन वर्ष में  उम्मीदों की नूतन छवि बनेगी

अबला नारी और बनेगी सबला अब

सीता नहीं बनेगी वह किसी राम से निष्काषित होने को

नहीं बनेगी वह द्रुपदी किसी दुशाशन से चीर हरन के लिए

राधा नहीं बनेगी वह अब जो कृष्ण से अंबियाही रह जाये

श्रापित  अहल्या नहीं बनेगी किसी राम से तर जाने को

दान -दहेज की बस्तु बन नीलामी पर नहीं चढ़ेगी वह

 सृजन की शक्ति का दायित्व लेकर जन्मी है वह
 
अपने कोमल हाथोँ के  ममतामई स्पर्श से सुला दे अपने थके हारे शिशु को

उस नारी में शक्ति है असीम

नदिओं का  मुख मोड़ दे वह

पहाड़  कांपे उसकी चित्कार सुनकर

उसके मौन को ना समझो उसकी कमजोरी

 शक्ति रूपिणी सृजानकारिणी उसमें है दुर्गा उसमें है काली उसमे है ममतामई माँ समाई

बेटी , बहन ,पत्नी कितने ही उसने रूप धरे

हर रूप ने  घर आँगन अलौकित कर डाले

ऐसा रौशन बना रहे हर घर हर आँगन

पहचान सकें हम अपने घर आँगन की  शक्ति रूपिणी

नूतन वर्ष को दस्तक दे रही उम्मीदों भरी शाम आई है

 नूतन वर्ष में  उम्मीदों की नूतन छवि बनेगी

अबला नारी और बनेगी सबला अब




 


 

Sunday, January 10, 2016


 पतझड़ का मौसम है आया

पतझड़ का मौसम है आया

सुन्दर -सुन्दर रंगों की बहार है लाया

भर लो भर लो मन में अपने बदले मौसम का यह सुन्दर परिधान 

रंग बदला है पत्तों ने अपना

बदला है पेड़ों ने अपना आज परिधान

लाल पत्तों से ढ़का वृक्ष अपनी ही लालिमा से लजाता झुक झुक जा रहा है

पीले पत्तों के वृक्षों ने भी पतझड़ की सुनहरी छटा के सामने सिर झुका दिया है

नारंगी और भूरे पत्ते भी पतझड़ संग मुस्कान बिखेर रहें हैं चहुँ ओर 

बदला मौसम बदल रहें  हैं सब पत्तों के रंग

दूर अकड़ कर खड़ा पड़ा है एक हरा ही हरा पेड़

बदले मौसम बदले सारी दुनिया मैं ना बदलूं

ऐसी अकड़ ठान कर बना हठी वह

अकड़ तुम्हारी है बेमानी प्यारे!

बदले मौसम के आगे टिका ना कोई

पतझड़ जाते जाते लेकर जायेगा

सारे के सारे हरे , लाल , पीले , नारंगी , और भूरे पत्ते अपने साथ

निर्वस्त्र खड़े फिर वृक्ष करेंगे मौन आरधना

 बसंत के नाम का आवाहन होगा चारों ओर 

खड़े बटोही राह तकें कब आओगे फिर निर्मोही बसंत

मत डालो तुम बर्फ की चादर हम पर सह ना पायेंगे हम हिम

शायद फिर ना मिल पाएं  हम अगले बसंत को तकते तकते
भारत में भारत की एक बेटी

क्या हुआ क्या हुआ क्या हुआ क्या हुआ

श -----------चुप बिलकुल चुप

तन मन दोनों से घायल हुई एक मासूम लड़की अपने ही आप में सिमट रही है

अपने ही समाज में अपनों से ही छुपने के लिये एक सुरक्षित कोना ढूँढ रही है

चुप रहने के लिये मजबूर है

बोले भी तो किस -किस के खिलाफ वह बोले

अपने ही चाचा ,मामा  ताऊ , या सौतेले भाई के खिलाफ बोलकर अपने ही 

परिवार पर कीचड़ उछाल दे या फिर उस कीचड़ मेँ रौंदी अपनी अस्मत को समेटे।


या फिर पडोस के उस हीरो लड़के के खिलाफ बोले जो हर रोज़ अपनी 

फटफटी स्कूटर पर एक नई लड़की को घुमाता है


जिसका बाप नेता बन कर दिन में नारी सुरक्षा पर सबसे ऊँची आवाज़ में भाषण देता है


और रात को बाप बनकर अपने ही बेटे के कुकर्म छुपाने के हवा में नोटों की गड्डियां उछाल देता है


ऐसे नेता और उसकी भ्रष्ट और ढोंगी सरकार उसे क्या न्याय दिलायेंगे ?


न्याय की तो उसने कोई उम्मीद भी नहीं लगाई है


उसके मन में एक छोटी सी इच्छा कहीं दबी छुपी पल रही है


वह अपने बचपन का एक पल फिर से जीना चाहती है जब वह अपने बाबुल 

के आँगन में भोली ,नादान , अल्हड़ सी बच्ची बन तितली के पीछे भाग रही 


है  काश कि भागते भागते वह भी एक तितली बन जाये और  बाबुल के 


आँगन में उड़ती रहे उड़ती ही रहे क्योंकि लडकी बनकर वह जी ना पायेगी 


वह तितली बनेगी क्योंकि तितली उड़-उड़ जाती है हाथ किसी के ना आती है.


खोई पहचान

अमेरिका में आकर मैं अपनी पहचान खो बैठी हूँ

नौकरी की तलाश में अपनी संस्कृति पीछे छोड़ आई हूँ

साड़ी छोड़ कर पैंट -शर्ट में घूम रही हूँ

साड़ी में जो अंग गरिमा छलकाते थे पैंट -शर्ट मेँ  वे बेडोल छवि दिखला रहे हैं
अमेरिका में आकर मैं अपनी पहचान खो बैठी हूँ

अपनी प्यारी मीठी-मीठी सी हिन्दी भाषा को विदा कर गिटपिट अँग्रेजी की झड़ी लगा रही हूँ

साहिब की भाषा में साहिब को समझा रही हूँ

नौकरी पाने का हर प्रयास कर रही हूँ

रहने के लिये रह रही हूँ सहने के लिये सह रही हूँ

अमेरिका में आकर मैं अपनी पहचान खो बैठी हूँ

अमेरिका में आकर मैं अपनी पहचान खो बैठी हूँ

पहनावा बदला भाषा बदली  राष्ट्रीयता भी अपनी बदल डाली

पूछे कोई तो हर साक्षात्कार में कहती हूँ

मैं अमेरिका की नागरिक हूँ इस पद के लिये सबसे योग्य व्यक्ति मैं ही हूँ
साहिब की भाषा में साहिब को समझा रही हूँ

अमेरिका में आकर मैं अपनी पहचान खो बैठी हूँ

अमेरिका में आकर मैं अपनी पहचान खो बैठी हूँ

पहनावा बदला भाषा बदली यहाँ तक की अपनी राष्ट्रीयता भी मैंने बदल डाली

सब कुछ कर डाला पर अपनी चमड़ी का रंग बदल ना पाई

सब कुछ कर डाला पर अपनी चमड़ी का रंग बदल ना पाई

जो हर साक्षात्कार में हर बार ,बार -बार एक ही प्रश्न खड़ा कर देता है

किस देश से आई हो ?

क्या चमड़ी का रंग साथ लाई हो ?

क्या भारत से आई हो ?

हाँ मैं भारत से आई हूँ अपनी चमड़ी का रंग भारत से ही लाई हूँ

हाँ मैं गर्व से कहती हूँ कि मैं भारत की बेटी हूँ यही मेरी सही पहचान है

बाकी सब आडंबर है नौकरी पाने का इक असफल प्रयास मात्र है

ऐसा आडंबर को मैं छोड़ती हूँ नौकरी को रद्दी की टोकरी में डालती हूँ

हाँ मैं गर्व से अपनी चमड़ी के रंग की  जयकार करती हूँ क्योंकि उसमे ही

  मेरी खोई पहचान छुपी जिसको मैं और छुपाना नहीं चाहती हाँ  मैं भारत की बेटी हूँ यही मेरी सही पहचान है



मानो ना मानो मैंने खेली होली आज डटकर


होली आज खेली मैंने

मानो ना मानो मैंने खेली होली आज डटकर

 खूब अबीर गुलाल उड़ाया पूरे कुनबे में डटकर

काले गोरे भूरे चिकने सभी चेहरे रंग डाले  मैंने डटकर

फिर पिलाई सारे मेहमानों को भाँग मिली ठंडाई डटकर

मानो ना मानो मैंने खेली होली आज डटकर

मानो ना मानो सारी मंडली नाच उठी फिर झूमकर

ढोलक की थाप पर, पायल की झनकार पर होली का संदेश गूँज उठा फिर पूरे कुनबे में डटकर 

मानो ना मानो मैंने खेली होली आज डटकर

खूब हल्ला गुल्ला और हुड़दंग मचाया सबने डटकर 

होली के नेह रंगों से भीगी सारी मंडली डटकर 

भूल ना पाये कोई होली ऐसी रंगो की बौछार हुई कि रिता ना छोड़ा मैंने   किसीको डटकर 

तुम भी खेलो होली ऐसी डटकर 

छोड़ो अकड़ आज तो झुका लो अपना सिर अपनी राधा रानी के आगे 

करो सामना फिर उसके डंडों का तुम डटकर 

मत समझो खुद को कान्हा से तुम कम 

क्योंकि कान्हा ने हँस कर खाए बरसाना में राधा रानी के पीहर के डंडे डटकर 

बना प्रेम फिर उनका अलौकिक 

पावन हुआ होली का यह पर्व 

क्योंकि हर होली में आता है हर प्रेमी कान्हा के रूप में और हर बाला सज जाती है राधा रानी के परिधान में 

अमर प्रेम फिर कहलाता उनका 

इसलिए खेलो तुम होली आज डटकर